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"ओ बी ओ लाइव महाउत्सव" अंक-52 की समस्त रचनाओं का संकलन

आदरणीय सुधीजनो,


दिनांक -14 फरवरी’ 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ लाइव महा-उत्सव अंक 52" की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “धागा/डोर” था.

 

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी  प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.

 

विशेष: जो प्रतिभागी अपनी रचनाओं में संशोधन प्रेषित करना चाहते हैं वो अपनी पूरी संशोधित रचना पुनः प्रेषित करें जिसे मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दिया जाएगा 

सादर
डॉ. प्राची सिंह

मंच संचालिका

ओबीओ लाइव महा-उत्सव

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1.आ० मिथिलेश वामनकर जी

प्रथम प्रस्तुति

कपास की बिनौलियाँ मचा रही किलोर है

कवित्त में प्रतीक जो प्रदाय आज डोर है

अभी विशाल रात है, अभी सुदूर भोर है

मधुर-मधुर मुलायमी समय विशिष्ट डोर है

 

न सांस से, न आस से, शरीर से न प्राण से

न वासना, न वेदना, किसी न दिव्य बाण से

प्रभावशून्य मन हुआ, न कामना यहाँ रही

पिया हृदय बसे विराट भाव से विभोर है

 

हृदय खिला-खिला यहाँ तरंग सी हिलोर है

पिया समीप  टूटती अजीब सांस डोर है

 

मुझे सुनो डरा सके न बादलों की ओट अब

भरम तनिक जगा सके न देवता की चोट अब

अमर्त्य प्रेम की कथा सुनो तुम्हे सुना रही

शरीर में मचा हुआ अजीब आज शोर है

 

उदीप्त प्रेम भावना अभी नवल-किशोर है

कहाँ चले हो चन्द्रमा यहाँ विकल चकोर है

 

गरीब को अमीर को समान रूप पालना

सहज नहीं, सरल नहीं, विशाल जग सँभालना

असंख्य पुण्य-पाप का विलेख रोज बाँचना

अनंत शक्तिमान की असीम बागडोर है

 

अदृश्य शक्ति का जगत, न ज्ञात ओर-छोर है

पतंग सा न मान लो, समय सशक्त डोर है

 

द्वितीय प्रस्तुति

 

ख़ुदा ने जान फूंकी है ख़ुदा के दर से आये है

जहां में आ गए हम तो, मिली फिर डोर ममता की

मिली खुशियाँ, मुहब्बत भी, मिले गम औ शिकायत भी

कभी लम्बी बहुत लम्बी, कभी छोटी बहुत छोटी

न जाने डोर कैसी ज़िन्दगी की वक़्त से जुड़ती

समय की डोर है लम्बी कई सदियाँ बरस इसमें

गुहर जैसा हमेशा ही पिरोया है मुझे इसने

गुहर बन के जुड़ा हूँ मैं, यहाँ कितने मरासिम से

मरासिम अब जहां भर के मुझे हलकान करते है

मरासिम आजकल क्यूं यार सुस्ताने नहीं देते?

मुझे हंसने नहीं देते, मुझे गाने नहीं देते

पतंगों की तरह बस कट न जाऊं, फड़फड़ाता हूँ

पतंगे बेवफा निकली, पतंगे ज़िन्दगी-सी है

चलो अच्छा कि हाथों में कज़ा-सी डोर है बाकी

अकीदत का सिला पाया ख़ुदा-सी डोर है बाकी

ख़ुदा के दर से आये थे, ख़ुदा के दर को है जाना

 

2.आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति*

एक डोर है प्रेम की, इक फंदा कहलाय।

जीवन कहीं हुआ शुरू, कहीं अंत हो जाय॥

 

सूत लपेटे पेड़ में, है अटूट विश्वास।

स्वस्थ सुखी परिवार हो, बस इतनी है आस॥

 

डोरी कटी पतंग की, आवारा हो जाय।

इधर-उधर उड़ती फिरै, ठौर कहीं ना पाय़॥

 

वस्त्र बुने जिस सूत से, क्या-क्या रूप दिखाय।

कहीं पहन फेरे लिए, कहीं कफन बन जाय॥

 

राखी रंग बिरंग के, बंधु बहन का प्यार।

आते हैं यमराज भी, यमुनाजी के द्वार॥

 

मोह काम के जाल में, फँसकर मद में चूर।

सांसारिक सुख ने किया, प्रभु से हमको दूर॥

 

जिन हाथों में डोर है, जग को वही नचाय।

कठपुतली असहाय हम, सादर शीश नवाय॥

 

*संशोधित 

द्वितीय प्रस्तुति "डोर / धागा" – वेलेंटाइनी रंग में

 

अब कहाँ प्रेम के धागे हैं, बस काम वासना के डोरे।

स्वेच्छाचारी नशेड़ी हुए, संस्कारहीन शहरी छोरे॥

 

कानून सभी कन्या हित में, स्वच्छंद हो रही लड़कियाँ।

महानगर की हवा प्रदूषित, वेलेंटाइन की मस्तियाँ॥

 

लव यू लव यू कहते फिरते, छुरी बगल में दबाते हैं।

मनमानी जब कर नहिं पाते, दानवी रूप दिखाते हैं॥       

 

ना फेरे सात न पाणिग्रहण, बस पशुओं सा व्यवहार है।

ना माने प्यार ना मार से, माँ बाप सभी लाचार हैं॥

 

समझाते सभी पर करते हैं, हर बार वही सब गलतियाँ।

आकर्षण के डोर जाल को, प्यार समझती लड़कियाँ॥   

 

मासूम हजारों फँस जाते, अतृप्त इच्छा की डोर में।  

इनकी चीखें कौन सुनें इस, वेलेंटाइन के शोर में॥

 

3.आ० गिरिराज भंडारी जी

प्रथम प्रस्तुति*

ज़रूरी नहीं

जो चीज़ है वो दिखाई ही दे

बहती हुई हवा की तरह , महसूस करना पड़ता है

किसी किसी के होने को

जैसे रिश्तों की डोर

 

हो कर भी

कुछ वास्तविक होतीं है

तो कुछ अवास्तविक ,

स्वीकार की गई, किसी कारण विशेष से

काम चलाउ

 

चाहे दिखे या न दिखे

जिसने दो छोरों को जीवंतता जोड़े रखा है   

डोर वही है , सच्ची

बिना किसी से जुड़े डोर भटकी हुआ लगती है ,

अपने होने के उद्देश्य से

 

जुड़ाव दोनों छोरों का वही स्थायी होता है

जो स्वाभाविक हो या

हो प्राकृतिक

 

साबित रहे डोर या काट दी जाये

जुड़ाव खत्म नहीं होता  

महसूस कर पायें या न कर पायें

जुड़ाव एक भी बार हुआ तो , हमेशा के लिये हुआ

 

जैसे निर्मित का निर्माता से

सृष्टि का स्रष्टा से

संतान का अपनी माँ से , नाल काट दिये जाए के बाद भी

रचना का रचनाकार से

 

डोर दिखे न दिखे

खिंचाव महसूस करेंगे ही सभी

आज नहीं तो कल ,

हमेशा नहीं तो कभी न कभी

 

द्वितीय प्रस्तुति*

सत्य का त्याग करें

या असत्य का वरण

दोनों गलत कामों में गिने जयेंगे  

 

जहाँ सच में बांधी हुई है कोई डोर

हमारी भोथरी संवेदना कर दे

अस्वीकार ,

या

जहाँ कोई भी बन्धन न हो

खोज ले कोई काल्पनिक बन्धन

दोनों ग़लत हैं

 

पूरा विश्व एक बेतार के तार से जुड़ा हुआ है

हम महसूस नहीं कर पाते

एक काल्पनिक बंधन को सच माने

आत्मा की स्वतंत्रता तक पहुँच नहीं पाते

 

जो है वो दिखता नहीं

जहाँ नहीं है वहाँ खोज लेते हैं

हम दोनों जगह ग़लत हैं

अ  रज्जु   न .... 

रज्जु के न होने को अस्वीकार कर

अर्जुन की तरह

 

और हमें किसी कृष्ण की तलाश भी नहीं

* संशोधित 

 

4.आ० डॉ० विजय शंकर जी

प्रथम प्रस्तुति- जीवन की डोर
डोर है ,डोर है ,
डोर डोर का जोर है ,
डोर डोर में जोर है ,
डोर कुएँ से पानी लाये ,
सावन में झूला , डोर झुलाये,
डोर ही पतंग उड़ाये , पेंच लड़ाये,
कटे डोर , दोष पतंग पे जाये ,
पतंग बिचारी , कटी कहलाये ,
वाह रे डोर की दादा गीरी ,
बांधे , खींचे , कठपुतली जस सबै नचाये।

जीवन की डोरी है,
माँ की लोरी है, पलने की डोरी है ,
करधनी डोरी है, गले में डोरी है,
बढ़ती लम्बाई है , नापती डोरी है ,
उम्मीदें हैं , आशायें हैं, मन में हिलोरें हैं।
यौवन है ,चंचल हैं आँखे, आंखों में डोरे हैं,
प्यार है , बंधन है , डोरे ही डोरे हैं,
नज़र किसी को भी न आएं , कैसे ये डोरे हैं ,

अजीब रस्सा कसी है ,
जिंदगी भी कैसी कैसी डोर से बंधी है।
जीवन तो बस तब तक है
जब तक डोर साँस की सधी है ।

 

द्वितीय प्रस्तुति - धागे धागे में विश्वास

धागा धागा कच्चा धागा ,
धागा धागा पक्का धागा,
धागा बांधा प्यार का धागा ,
ममता और दुलार का धागा ,
बचपन से बस धागा धागा ,
स्कूल-क्लास , रुई , तकली , कच्चा धागा ,
नाचे तकली , बढ़ता धागा, धागे में विश्वास।
धागे से वस्त्र , आवरण , माँ का आँचल ,
आँचल की छाँव , सुवास ही सुवास |
भाई , बहन , राखी का धागा,
भाई की रक्षा , बहन का प्यार , अटूट विश्वास,
पीला , लाल , केसरिया धागा , कलाई पे बांधा ,
कलावा , आशीष , कल्याण , शक्ति - सामर्थ्य
एक सशक्त , दृढ विश्वास ,

उपनयन संस्कार , यज्ञोपवीत का धागा ,
धागों के कैसे - कैसे बंधनों की भरमार,
विवाह संस्कार।
दीर्घायु हों पति , बस यही मनोकामना ,
वट-सावित्री है , वट-वृक्ष पर धागा बांधना ,
पुष्पों का ढेर , फैला , बिखरा हुआ ,
पिरो दिया धागे में बन गया पुष्पहार ,
चढ़ाने के लिए हार ही हार।
छोटा सा धागा , गाँठ बाँधना , कर कामना,
मंदिर हो , दरगाह हो , बस एक मंगल कामना,
कुश - संकल्प है , धागा - बंधन भी संकल्प है ,
धागों से वस्त्र है , लाज है , सभ्य समाज है ।

बांधते हैं जो धागे वो एक दिन टूट जाते हैं ,
बंधन वैसे ही मजबूत बने रह जाते हैं,
धागा टूटे या रहे , लाज रहे ,
सम्बन्ध रहे , विश्वास रहे ,
जीवन में बस यही संकल्प रहे ,
यही संकल्प रहे ॥

 

5.आ० राजेश कुमारी जी

प्रथम प्रस्तुति- ग़ज़ल 

कांटें यहाँ बिखरे कई आँचल जरा बिछा लूँ   

हर पल निहारुँगी तुझे मैं सामने बिठा लूँ  

 

बिंदी शगुन की प्यार का कजरा जरा लगा लूँ 

सजना मुझे, आँखें तेरी मैं आइना बना लूँ 

 

मैं हर बुलंदी की तेरी माँगूं दुआएं रब से    

परवाज़ भर, छूले गगन डोरी जरा बढ़ा लूँ

 

तू फूल मैं डाली तेरी तुझसे अलग नहीं मैं

जाना तेरे ही साथ में गर्दन जरा झुका लूँ 

 

काटे तुझे जो तीरगी पैदा नहीं हुई वो

सूरज छुपे सौ बार मैं दिल का दिया जला लूँ  

 

धागा मुहब्बत का मेरी इतना नहीं है कच्चा

तेरे दुखों का भार मन की डोर से उठा लूँ

 

सदके सदा जाऊँ तेरी इन खिलखिलाहटों पर

तेरी हसीं मुस्कान अपनी मांग में सजा लूँ

 

दूसरी प्रस्तुति 

अतुकांत 

डोर मजबूत तो है....

अगर कच्ची निकली तो?

पूर्व संदेह, बंधन का !!

एक ही डोर, उस छोर पर मजबूत...

तुम्हारे छोर पर कमजोर क्यूँ ?

प्रश्न रिश्तों का !!

उसकी डोरी  अरुद्द  

तुम्हारी में ग्रंथि क्यूँ ?

घूमती  तर्जनी  अपनी ओर !!

कभी इन प्रश्नों  के उत्तर के लिए

आत्म्विश्लेष्ण किया ?

गिरह कहीं तुम्हारे अहंकार

या बेसब्री की तो नहीं

डोर कच्ची है या तुम्हारी पकड़?

कच्ची है तो बनाई किसने ?

तुमने ही न ?

कभी सोचा ...

 वो नचा रहा है और तुम नाच रहे हो 

 वो विशेष क्यूँ ?

 क्यूंकि उसकी डोर और उसकी पकड़

 तुमसे ज्यादा मजबूत है

जो पक्के इरादों से बनी

सिर्फ बाँधने में विश्वास रखती है

पर तुम्हारी ??  

 

6.आ० खुरशीद खैरादी जी

प्रथम प्रस्तुति

बड़े नाज़ुक मरासिम है वफ़ा की डोर से बाँधों

मेरी मानो न फूलों को अना की डोर से बाँधों

 

रखोगे कैद कैसे तुम इसे शीशी की कारा में

ये ख़ुशबू है इसे चंचल हवा की डोर से बाँधों

 

हया का रंग आँखों में ज़बीं पर लट शरारत की

मेरे दिल को इसी क़ातिल अदा की डोर से बाँधों

 

बुरा हूं या भला हूं मैं शरण में अब तुम्हारी हूं

मुझे रघुनाथ जी अपनी कृपा की डोर से बाँधों

 

ग़ज़ल को तुम चलो लेकर किसी मुफ़्लिस के द्वारे पर

हर इक अशहार को उसकी व्यथा की डोर से बाँधों

 

सफलता की पतंग उड़ती रहेगी बादलों के पार

झुकाओ सिर इसे माँ की दुआ की डोर से बाँधों

 

धरा पर नूर की चादर बिछाओ शौक से ‘खुरशीद’

हमारे गाँव को भी तुम ज़िया की डोर से बाँधों

 

द्वितीय प्रस्तुति

मुझे बाँधे रहे हरदम तुम्हारे प्यार का धागा

न टूटे तोड़ने से भी हमारे प्यार का धागा

 

अना के खार से रिश्तों की चादर फट अगर जाये

रफ़ू करके मनाफ़िज़ को सँवारे प्यार का धागा           मनाफ़िज़=छिद्र-समूह

 

तसव्वुर की पतंग उड़ती है जब माज़ी के गर्दू में         गर्दू=आकाश

तेरी छत पर लिए जाये कुँवारे प्यार का धागा

 

करो मज़बूत इसको तुम वफ़ा का फेरकर माँझा

चले कैंची अगर शक की न हारे प्यार का धागा

 

ज़मीं पर जोड़ता है दिल मिटाकर फ़ासले झूठे

फ़लक पर जोड़ता है सब सितारे प्यार का धागा

 

चले आना मेरे वीरा झड़ी सावन की लगते ही

सदा बनकर बहन की जब पुकारे प्यार का धागा

 

बुने ‘खुरशीद’ जी किरणें इसी धागे से हर इक सुबह

सवेरे को अज़ल से यूँ निखारे प्यार का धागा 

 

7.आ० लक्ष्मण धामी जी

प्रथम प्रस्तुति
कभी खुला मत छोडि़ए, मोती ढोर पतंग
अच्छे लगते  हंै सदा, बँधे  डोर के संग ।1।

थोड़ा तो नम राखिए, हर रिश्ते की डोर
रूखी सूखी जब रहे, मत दीजे तब जोर ।2।

एक डोर में बँध रहे, सुमनो की ज्यों माल
जनजन बँध सौहार्द से, देश रहे खुशहाल ।3।

चाहो  धागा प्रेम का, मन से कातो सूत
चादर रिश्तों की बने, तब बेहद मजबूत ।4।

बाँधे सूरज प्यार से, सबको ही इक डोर
कहाँ अलग हैं बोलिए, रजनी संध्या भोर ।5।

माणस माणस दोस्ती, मोती मोती माल
खींच तान में बच रहे, ऐसा धागा डाल ।6।

ढीली ढाली मत रखो, जादा मत दो खींच
अपनेपन की  डोरियाँ,  रखिए  दोनों बीच ।7।

रहे  बिवाई  पाँव  में, नयन  भरे  हों  नीर
एक डोर से जब बँधे, कहाँ अलग फिर पीर ।8।

अल्हड़पन में  बाँधती, अनजानी  सी डोर
मन बौराया नित फिरे, गली गली में शोर ।9।

बरबस  धागा  प्रेम का, कब  बाँधे है बोल
जब बाँधे तो दे खुशी, तनमन करे किलोल ।10।

 

दूसरी प्रस्तुति ( गजल )
न जाने कब अमिट हो भोर रिश्तों की
तमस  बेढब  बढ़े नित ओर रिश्तों की

खुदा ने भी न जाने क्यो समझते सब
बड़ी   नाजुक  बनाई   डोर  रिश्तों  की

न रख सुरमा कभी दौलत का आखों में
करे  है  ये  नजर  कमजोर   रिश्तों की

सजग रहना बचाने  को  हमेशा तुम
लगे  हैं  चोरियों  में  चोर  रिश्तों की

न रख फंदों को यूँ  ढीला जमाने में
उधड़ जाती कड़ी कमजोर रिश्तों की

हमेशा  चाहिए  मालिश  सहजता को
वजन मत रख दुखेगी पोर रिश्तों की

अगर टूटी तो  जोड़े  से नहीं जुड़ती
न ऐसे डालिया झकझोर रिश्तों की

सॅभलकर चल ‘मुसाफिर’ तू कयामत तक
हमेशा   से   बहुत   ही   खोर   रिश्तों  की

/ खोर - सॅकरी गली /

 

8.आ० सरिता भाटिया जी

कच्चे धागे प्रीत के ,कोई सके न तोड़
है अदृश्य बंधन मगर,दें बंधन बेजोड़ ||


देता आशीर्वाद है ,मात पिता का प्यार 
जिस धागे से हम बँधे,ममता की वो तार || 


कच्चा धागा है मगर, लाया सच्ची प्रीत 
बहन सूत्र है बाँधती,गाती मंगल गीत ||

 

पति पत्नी जिससे बँधे, कहें डोर विश्वास 
सुख दुख के साथी बनें, बंधन बनता खास || 

 

दोस्ती का बंधन गजब,है जीवन पर्यन्त 
प्रीत और विश्वास का, यहाँ कभी ना अंत ||

 

साँसों की ये डोर को,समझो प्यारे मीत 
छदम कपट से दूर रह, गाओ जीवन गीत ||

 

साँसों की इस डोर से ,बँधा मनुज इठलाय 
नहीं भरोसा साँस का ,जाने कब थम जाय ||

 

9.आ० दयाराम मेठानी जी

1)
मानव जीवन एक पतंग और उसकी कृपा डोर है,
बिन उसकी कृपा आदमी का कब यहां चलता जोर है, 
कठपुतलियों की तरह ही नाचते है हम इस जगत में, 
वही देता सुख दुख के पल वही लाता नई भोर है।

(2)
डोर सच की जिन्दगी में तुम कभी भी छोड़ना मत, 
खून के रिश्तों से कभी मुंह अपना मोड़ना मत, 
प्यार के रिश्ते है कच्चे धागे से इस जहां में, 
जिन्दगी में प्यार के रिश्ते कभी तुम तोड़ना मत।

(3)
पतंग डोर के सहारे आसमां में उड़ती है, 
टूट जाय डोर तो झट से धरा पर गिरती है, 
आगे बढ़ने के लिये सबको सहारा चाहिये, 
बिन सहारे जिन्दगी भी चैन से कब कटती है। 

 

10.आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति- सम्बन्ध 

प्रथम पद

 

प्रभू जी मै लोटा तू डोर

तू अमूल्य रस लेकर आया      मै आनंद-विभोर I प्रभू जी 0 I

कब से तू अंतर में पैठा      नहीं जगत को ज्ञात

अनाधार अन्धा मन भटके  प्रति वासर प्रति रात  

तू पूनम का चंदा, हूँ मैं    चातक चकित चकोर I प्रभू जी 0 I

अगणित रूप तुम्हारे जग में  मानव के मनजात

हिय अन्वेषण किया न जिसने अंत समय पछतात

तू गतिमान प्रभंजन तो मैं     श्याम घटा घनघोर I प्रभू जी 0 I

 

द्वितीय पद

 

प्रभु जी तुम माला मै धागा

मनका-मनका से बिंध-बिंधकर   अंतर्मन  जागा I प्रभु जी 0 I

तैतिस कोटि देवता सबके      इक प्रियतम मेरा  

मिलन सनातन जब हो जाए        क्या मेरा तेरा  

मंदिर-तीरथ कहीं न जाऊँ      मन में मन लागा I प्रभु जी 0 I

वेद-पुराण पढ़े सब ज्ञानी       तत्वम् असि गावे

भक्त भजन करि अनायास ही   दुर्लभ पद पावे

ईष्ट देव के चरणों में जो       प्रति पल अनुरागा I प्रभु जी 0 I

 

द्वितीय प्रस्तुति -भाई का संकल्प

धागा बाँधा प्रेम का           प्रिय भ्राता के हाथ

नहीं छोड़ना वीर तुम     निज बहना का साथ

निज बहना का साथ     सदा रक्षा तुम करना

भाई का जब त्राण  बहन को फिर क्या डरना

कहते है गोपाल           स्वत्व भाई का जागा

संकल्पो से सुदृढ़          सत्य राखी का धागा

 

बहना यह केवल नहीं     है रेशम की डोर

प्रेम और संकल्प से      मै हूँ आत्म विभोर

मै हूँ आत्म विभोर      बचन रक्षा का देता

बंधन है यह डोर     शपथ इसकी मै लेता

कहते है गोपाल        पड़े चाहे जो सहना

होगा बाल न बंक    कभी जीते जी बहना 

 

11.आ० लक्ष्मण रामानुज लडिवाला जी

प्रथम प्रस्तुति- पाँच दोहे

देते जो हक़ से अधिक,कर्त्तव्यों पर जोर,

वे ही कसकर थामते, संबंधों की डोर |

 

मानव के अब भूख का, रहा न कोई छोर

टूट रही हर रोज ही, सम्बन्धों की डोर ||

 

इक धागें में बांधले, पूरा घर परिवार,

सदा उसी परिवार में, सुखी रहे संसार |

 

एक स्वाति की बूँद से, मिटे प्यार की प्यास,

राखी धागा प्रेम का,  बहना का विश्वास ||

 

सीकें बन्धी डोर से,  देती फर्श बुहार,

बिखर गई तो मान्लों,होगी निश्चित हार |

 

द्वितीय प्रस्तुति  (प्रेम का इजहार)

मज़बूरी मे ढूंढी जब नौकरी

स्नातक करना रहा अधूरा,

फिर गुजरने लगा समय

बीतने लगा सादगी से पूरा |

एक दिन आम से बना ख़ास

जब मेरे साँसों की डोर संग

जुड गई अजनबी,

बनकर जीवन संगिनी

बंधन में बाँध रही थी

रेशम की डोर,

जीवन में फिर हुई नई भोर |

 

जीवन में हुआ नया सवेरा,

आशाएं जगी जब हुई

मन की डोर पक्की,

स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण कर

बन गया शिक्षित नागरिक |

माँ-बापू से आशीष में

मिली पक्की डोर,

संभालें एक के बाद एक

नहीं, एक साथ कई छोर.

अधिस्न्ताक के साथ ही

बेटे और बेटी का बाँप,

समाजसेवा के पद चाप

धागा था मजबूत

सफल हो, दिया सबूत |

 

मेरे से अधिक योग था

उन साँसों की डोरी का,

जिसने सम्भाल लिया घर बार,

तभी मै जीतता ही गया हरबार |

प्रेम की डोर से बंधकर

जीवन सार्थक कर

किया प्रेम का इजहार  

अपार ह्रदय से प्यार |

हे परमेश्वर तुम्हे प्रणाम !

 

12.आ० समर कबीर जी

हाथ पे भय्या के जो बांधे बहना धागा राखी का
कितना अच्छा कितना सुन्दर लगता धागा राखी का

इसकी ताक़त का अंदाज़ा कौन लगा सकता है साहिब
दिखने में लगता है कितना कच्चा धागा राखी का

मैं पर्देस में बेठा अपनी मजबूरी पर रोता था
डाक से मेरी ख़ुशियाँ लेकर आया धागा राखी का

भारत के इतिहास में यारो ऐसा भी इक क़िस्सा है
हिन्दू रानी ने मुस्लिम को भेजा धागा राखी का

मैने भी सौगन्ध उठाई उसकी रक्षा करने की
बहना ने जब हाथ पे मेरे बांधा धागा राखी का

 

13.आ० रमेश कुमार चौहान जी

 

चित चंचल मन बावरा, बंधे ना इक डोर ।।
बंधन माया मोह के, होते ना कमजोर ।।

जग में आकर जीव तो, बंध गया इक डोर ।
मेरा मेरा कह फसे, प्रभु का सुमरन छोड़ ।।

मृत्युलोक में सार है, पाप पुण्य का काज ।
साथ बंध कर जो चले, लिये जीव का राज ।।

हम कठपुतली श्याम के, बंधे उसके डोर ।
खींचे धागा जब कभी, जाते जग को छोड़ ।।

अनुशासन के डोर से, बंधे अपने आप ।
प्रथम चरण यह योग का, मेटे जो संताप ।।

 

14.आ० महिमा श्री जी

एक अदृश्य डोर

विश्वास का ,स्नेह का

एक-दूसरे के ख्यालों का

नीली-पीली,लाल-गुलाबी अदृश्य डोर

जोड़े रहती है संबधों को

कभी तन जाती है

कभी टूटती है फिर जोड़ी जाती है

दूरीयों– नजदीकीयों की कसमकस में भी

जीवन भर हमें बांधे रहती है

मृत्यु के बाद भी कहां जलती है चिता के साथ

ना ही घुलती है जलते शरीर के चिरांध धुएं में

ना ही सड़ती है दफनाएं गए कब्र के साथ

ये तो हमेशा जोड़े रहती है

अपनों के साथ उनके एल्बम के श्वेत-श्याम चित्रों में

बरामदे की दिवार में टंगे पुराने चटकते फोटो-फ्रेम में

बातों में, ख्यालों में, दुख-सुख के चर्चो में

पीढ़ी दर पीढ़ी एक अदृश्य डोर

 

15.आ० महर्षि त्रिपाठी जी

प्रीत की डोर 

मिलते है जिसमे सिर्फ अश्रु और गम 

फिर भी चूकते नही प्यार करते हैं हम 

हो कहीं भी सर्वत्र तुम दिखती प्रिये 

बनके तुम फूल बंजर में खिलती प्रिये

न मुरझाना कभी ए हृदयवासिनी 

लगाले ज़माना चाहे कितना भी जोर 

रखना इसे संभाल ये है प्रीत की डोर |

मन ये बावरा हुआ एक तेरी ही धुन 

पछियाँ कह रहे जरा उनकी भी सुन 

मेरे तन मन पे है एक तेरा अधिकार 

जो भी गम या ख़ुशी दे मुझे है स्वीकार 

रखूँगा बचा के हर मुश्किल से तुम्हे 

दूंगा तुम्हे सबकुछ ,दिल में उठा ये शोर

रखना इसे संभाल ये है प्रीत की डोर |

कुछ ज़माने का सुन के बदलना नहीँ

जिस डगर न रहूँ उस पे चलना नही 

अब तो हर एक जन्म तुम मेरे हुये 

जब पकड़ एक दूजे को फेरे लिए 

जो लिए हैं वचन वो निभाना प्रिये 

चाहे कितनी भी ऊँगली उठे तेरी ओर 

रखना इसे संभाल ये है प्रीत की डोर |

तू नदी है मेरी मैं हूँ प्यासा पथिक 

प्यार कम तू करे तो करूँ मैं अधिक 

तेरे आँखों मैं हूँ मैं तो दिखता प्रिये 

तेरी अश्कों के बीच हूँ खिलता प्रिये 

आये बरखा तो ये प्रेम बढ़ता रहे 

तू है सावन तू हूँ मैं सावन का मोर 

रखना इसे संभाल ये है प्रीत की डोर ||

 

16.आ० सौरभ पाण्डेय जी

जी भर कर बरसना चाहता है आसमान
बेहया चटक ’पनसोखा’
लेकिन बार-बार उग आता है..
ठीक सामने..
शाम आज देर से रुकी पड़ी है.
खिड़कियों के पल्लों में उभर आयी दरारें
अधिक दिखने लगती हैं,
क्या उसे मालूम नहीं ?
इन पल्लों की केंकती आवाज़
अधिक तीखी लगती है आजकल.

अनमनायी स्मृतियों को बाहर आने में
कोई खुशी नहीं होती
ब्याह के लिए जबरन दिखलायी जाती
लड़कियों की तरह

मगर वे भी बेबस हैं..
महीनों पर महीने तब भी बीतते थे, प्रिय !
मगर तब उम्मीदों की डोर लिपटी रहती थी न..

वट-तने से.. 
अधब्याहा मन अँखुआता टूसा बना रहता था !
अब महीने भारी होते हैं.

आँचल की कोर के धागे स्वप्न नहीं
जाले बुनते हैं अब 
हमारी ’करौंदों की झाड़ियाँ’ मकड़-जालों से परेशान हैं
आओ.. धागों को सहेजने, आओ..
मन सुलझे..
फिर उलझूँ..
फिर सुलझे..
फिर उलझूँ.. 
फिर उलझे.. फिर उलझे.. 
फिर उलझे..
फिर.. फिर.. फिर.. सुलझाओगे न ? 

 

17. आ० डॉ० उषा चौधरी साहनी जी

बिना डोर कैसे बंधे चन्दा और चकोर


जो बंधने को ढूंढे डोर वो प्यार कैसा
जो सारे बंधन न दे तोड़ वो प्यार कैसा ॥
हदों में सिमट के न रह पाये वो प्यार कैसा
सरहदों में बंध के रह जाए वो प्यार कैसा ॥

प्यार को प्यार से देखो, प्यार को प्यार करो
डोर से नहीं, धड़कनों से बंधे जो वो प्यार करो ||
दिलों को जो एहसास से जोड़े, वो प्यार करो
धरती पर जो दिखा दे स्वर्ग वो प्यार करो ||

तैर के पार जाने वाले डोर बांध के रखते हैं
प्यार में डूबने वाले डोर से नहीं बंधा करते हैं ||
डोर के सिरे उन के मजबूती से जुड़े रहते हैं
जो प्यार में प्रभु के भी साथ हुआ करते हैं||

बिना डोर कैसे बंधे चन्दा और चकोर
प्यार में बंधे उन्हें क्या बांधे कोई डोर ॥

 

18.आ० राम आश्रय जी

सृष्टि सृजन के धागे से, आज बंधे सब लोग ।

सब मिलते हैं प्यार से, करते जीवन योग  ॥

समय बांधा ऋतुओं में, सबको दिया सम्मान।

सर्दी,गर्मी वर्षा ऋतु में , बांटा सकल जहान ॥  

क्रूर कष्ट कहीं न जग में, ममता चारों ओर ।

बंधे प्यार के बंधन में, दुश्मन पड़ा कमजोर ॥

सरिता को पार करते, उस पर पुल बांधकर ।    

समस्या को दूर करते, समाज को जोड़कर ॥

मिटा दिया दूरी सभी,  जोड़ हृदय के तार ।

धारा सुर की बह चली, क्लेश बहा मझधार ॥  

ज्ञान की गंगा बह रही, जग में चारों ओर ।

अज्ञानता दिखती नहीं, चमन हुआ गुलजार ॥

हमारी प्रगति का दौर,चल रहा रफ्तार से ।

पिछड़े अब कोई नहीं, सब बंधे विकास से॥

हिन्दू ,मुस्लिम सिक्ख, इसाई, करते मिलकर काज।

अब समाज बाधक नहीं, फैली एकता आज ॥        

कच्छ से लेकर कटक तक,सभी देश के पूत । 

हिमालय से केरल तक, आज बंधे एक सूत ॥

बहु भाषा बाधा नहीं, मकसद सभी का एक ।

निसि दिन करते प्रगति सब,सम्मुख रखकर प्रतीक ॥

बंधे प्यार के बंधन में,ले माँ का आशीष।   

सदा देश की रक्षा में, देते अपना शीश ॥

 

19.आ० सुशील सरना जी

जब जिस्म से
धागा साँसों का टूट जाता है
विछोह की वेदना में
हर शख्स शोक मनाता है
शोक में दुनियादारी के लिए
चंद अश्क भी बहाए जाते है
आपसी मतभेद छुपाये जाते हैं
याद किया जाता है उसके कर्मों को
उससे अपने प्रगाड़ सम्बन्धों के 
मनके गिनवाए जाते हैं 
ऐसे अवसरों पर अक्सर 
ऐसे शोक में डूबे
नजारे नजर आ जाएंगे 
और पल भर में अपने
आडम्बर की कहानी कह जायेंगे
ऐसे ही एक अवसर पर
जाने कितने काँधे
एक जिस्म को उठाने
के लिए आतुर थे
हाँ, आज वो सिर्फ और सिर्फ
एक जिस्म था
बेजान, निरीह
गुलाब के फूलों से सजा
कल तक जो चौखट
उसके आने का
इन्तजार करती थी
आज उस चौखट से
उसका नाता टूट गया
हर रिश्ते का धागा टूट गया
कौन जाने
किसके दिल में दर्द कितना है
जाने किसके सूखे अश्कों में
ये जिस्म दूर तक जिन्दा रह पायेगा
अपने बीते हुए हर पल की
कहानी कह पायेगा
हर रिश्ते की आँख
कुछ दिनों में सूख जायेगी
जिस्म जल जाएगा
अस्थियाँ गंगा में बह जायेंगी
सब अपना फर्ज निबाह कर
दुनियादारी में लग जायेंगे
किसके लिए शोक किया था
शायद ये भी भूल जायेंगे
फ्रेम में जड़ी तस्वीर के आगे
सिर को झुका के निकल जायेंगे
दुनियादारी के शोक तो
अश्कों के साथ बह जायेंगे
मगर टूटा है जिसका साथ
वो सदा के लिए
टूट जाएगा
उसका हर अन्तरंग पल
उसकी अनुभूति से
गीला हो जाएगा
जिन्दा रहेगा जब तक
दिल 
उसके अक्स को
न भुला पायेगा
दिखेगा न किसी को
और शोक
दिल का हमसाया हो जाएगा

 

20. आ० नादिर खान जी

विशवास की डोर

दोस्ती / वफ़ादारी

प्यार / भाई चारा

सबको बाँधती है

एक डोर

विशवास की डोर ।

जो पालती है सपनों को

जोड़ती है रिश्तों को

जगाती है आस

दिखाती है राह ।

दिलाती है भरोसा

कर्म के फल का

सच की जीत का

अधर्म के नाश का

प्यार के साथ का

वादों को निभाने का ।

संभल के चलना

थाम के रखना

नाज़ुक सी होती है

विशवास की डोर ।

बची है इंसानियत

बची है सृष्टि

मज़बूत है जब तक

विशवास की डोर ।

 

21. आ० प्रतिभा त्रिपाठी जी

प्रेम तुम्हारी अनुभूति ने ,

विस्तृत कर दिया ये जीवन । 

बांधकर इक डोर से ,

समेट दिया ,

अभिलाषाओं का अंबार ।

बस मुट्ठी भर ,

तुम्हारी मधु स्मृतियों को ,

बांध पायी इस डोर से । 

जो बांधे थी तुम्हें और मुझे ,

न खुल सकी । 

क्यूंकी मैं तुम्हारी मृदु स्मृतियों की,

मुट्ठी नहीं खोल सकती थी ।

तुम्हारे अस्तित्व को अपनी श्रद्धा से ,

तोल नहीं सकती थी । 

व्यथा की आग ,

पग- पग पर ये डोर जलाती रही । 

जल गयी डोर और खुल गया बंधन । 

किन्तु फिर भी ये सोचकर ,

इस मुट्ठी को मैं सहलाती रही । 

कि तुम्हें भी ये अनुभूति होगी ,

जब मेरे जीवन के अंतिम क्षणों में ,

तुम मेरे पास आओगे । 

ये मुट्ठी ,

तुम्हारे मेरे प्रेम संबंध की डोर से,

बंधी हुई पाओगे । 

 

22. आ० इ० गणेश जी “बागी” जी


गाँव से दक्षिण

छोटा सा टोला

कल की चिंता नहीं

आज झेलने को विवश

छोटी-छोटी तितलियाँ

कपड़ों को संभालते मोटे धागे

बेतरतीब बिखरे बाल

चिचिरी खींच

उछालती गोंटियाँ  

कब बंध गए बाल  

कब लम्बी हुई चोटियाँ

इस टोले को भान न हुआ

पर....

ताड़ गये पूरब वाले

रात अँधेरे में

आये कुछ साये

अँधेरा छटा  

आखों में तैर गये लाल डोरे

फिर घंटों पनियायी आँखे

अंततः सब कुछ शांत

नियति पुनः दोषारोपित हुई.

 

23.आ० सत्यनारायण सिंह जी

मधुर भाव अति मधु के जैसे, हर मन मानस सरसाये!  

होकर हर्षित आज प्रेम जग, रंग गुलाबी बरसाये!!

भीग गुलाबी रंग अंग सब, नयन मीत छबि रख आगे!  

प्रेम दिवस जग आज मनाये, बाँध नेह के मन धागे!!

 

बंधक बन मन आज प्रेम में, नित्य नए अनुभव पाये!  

लगे सुहानी कुदरत सारी, रीत प्रीत की मन भाये!!

हर्ष व्यक्त कर पाये ना तब, मंद मंद मन मुस्काये!     

सुध बुध भूल लोक लज्जा सब, गीत प्रीत नित मन गाये!!

 

यह युग युग की प्यास मिटाए, अनुपम प्रेम अमिय धारा!

विविध ताप को शांत करे यह, विजन बयार मलय कारा!!

घट भर प्रेम सुधा नित रखिये, मिला कूप जीवन प्यारा!

प्रेम डोर घट बांध सत्य फिर, भरता आज अमिय न्यारा!!

 

24.आ० योगेन्द्र जी

कुण्डलिनी छंद
राधे गीत सुना रही,तू नटखट सा चोर|
कैसी मन के मीत की,बंधी रेशम डोर||
बंधी रेशम डोर,जग में प्रीत की न्यारी|
प्रीत ताल में भीग,खो गई रे गिरधारी||

 

25.आ० हरि प्रकाश दूबे जी

नहीं,

कोई भ्रम नहीं ,

न मैं कोई मनुष्य विशेष

न मुझे लगें हैं पंख सुरखाब

अरे वही चकवा वाले रंगीन रंगीन

हाँ , नहीं किया मैंने कभी कोई जुर्म संगीन !

आदि

से अंत तक

ग्रीष्म, शरद से बसंत तक

नियति की डोर से बंधा मैं

सतत, बस इसी तरह जीता हूँ

विष अमृत समान समझ पीता हूँ !

अरे

मैं भी वही हूँ ,

जो खुश हो जाता अपनी,

छोटी-छोटी सफलताओं पर

कभी दु:खी भी, असफलताओं पर

पर जिजीविषा मेरी कभी टूटती नहीं !!

 

साहस की डोर कभी मेरे हाथ से छूटती नहीं !!

साहस की डोर कभी मेरे हाथ से छूटती नहीं !!

 

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आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी संकलन के श्रमसाध्य कार्य को पूर्ण करने और संकलन प्रस्तुत करने के लिए आभार। आयोजन की सफलता पर हार्दिक बधाई निवेदित है।

आ. प्राची जी इतनी शीघ्र संकलन हेतु आप को बधाई |

त्वरित संकलन पर आपके अनुमोदन हेतु आभार महर्षि त्रिपाठी जी 

आ० मिथिलेश जी 

संकलन कर्म को मान देने के लिए आपका आभार..यकीनन इस बार का आयोजन बहुत ही सफल रहा..ज्यादातर सहभागियों नें दो-दो प्रस्तुतियाँ दी हैं, ये मंच पर व्याप्त उल्लास का जीवंत स्वरुप है... कार्यालयी और पारिवारिक व्यस्तताओं के चलते मैं यथोचित समय न दे सकी..जिसका खेद है.

आप सबका उमंग उत्साह... आनंदित करता है.. आपका तो बीमारी का बहाना बना कर महोत्सव के लिए चले आना.... हाहाहा :)))

मंच पर ये जो सीखने सिखाने चर्चाओं सहभागिताओं का सकारात्मक उल्लासकारी वातावरण तारी हुआ है...जल्दी ही उसमें मैं भी पूरी तरह शामिल होती हूँ.

आपकी शुभकामनाओं के लिए हार्दिक आभार 

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी, सही कहा आपने, इस बार ज्यादातर सहभागियों नें दो-दो प्रस्तुतियाँ दी हैं, साथ ही प्रस्तुतियां समृद्ध और मानक स्तर पर भी श्लाघनीय है.  बीमारी का बहाना वाली बात अब इंटरनेट पर सार्वजानिक हो गई, बस किसी विभागीय महानुभाव की ओबीओ तक पहुँच न हो ... आपकी टिप्पणी के बाद अपने विभागाध्यक्ष का व्यंग्य याद आ गया -- ध्यान रहे कवित्त का विपरीत प्रभाव वित्त पर न पड़े. खैर शुभ शुभ होगा, एक आशावादी का भरोसा. बाकी इस पुरे घटनाक्रम में स्कूल से भाग के आने वाले दिन याद आ गए. बालसुलभ उत्साह का फिर फिर जागना  इस आयोजन की मुझे बड़ी देन है. सादर 

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी आयोजन के सफल  संलन  शीघ्र संकलन  हेतु  हार्दिक बधाई 

सा 

महोत्सव संचालन कर्म के लिए बधाई इस बार मैं स्वीकार नहीं कर सकती आ० सत्यनारायण सिंह जी...हाँ संकलन कर्म के लिए आपकी बधाई हृदय से स्वीकार करती हूँ.

आप सबकी सतत उत्साही और सदिश सहभागिता में ही महोत्सव की सफलता के प्राण हैं..इसलिए आपको भी महोत्सव की सफलता के लिए बधाई 

आदरणीया प्राची जी , संकलन शीघ्र उपलब्ध कराने के लिये आपका बहुत आभार । आयोजन की सफलता के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

मेरी दोनो रचनाओं में कुछ गलतियाँ थीं , उन्हें सुधार कर फिर से पोस्ट कर रहा हूँ । पुरानी रचना की जगह इन्हें प्रतिस्थापित करने की कृपा करें

॥ सादर निवेदन ॥

ज़रूरी नहीं

जो चीज़ है वो दिखाई ही दे

बहती हुई हवा की तरह , महसूस करना पड़ता है

किसी किसी के होने को

जैसे रिश्तों की डोर

 

हो कर भी

कुछ वास्तविक होतीं है

तो कुछ अवास्तविक ,

स्वीकार की गई, किसी कारण विशेष से

काम चलाउ

 

चाहे दिखे या न दिखे

जिसने दो छोरों को जीवंतता जोड़े रखा है   

डोर वही है , सच्ची

बिना किसी से जुड़े डोर भटकी हुआ लगती है ,

अपने होने के उद्देश्य से

 

जुड़ाव दोनों छोरों का वही स्थायी होता है

जो स्वाभाविक हो या

हो प्राकृतिक

 

साबित रहे डोर या काट दी जाये

जुड़ाव खत्म नहीं होता  

महसूस कर पायें या न कर पायें

जुड़ाव एक भी बार हुआ तो , हमेशा के लिये हुआ

 

जैसे निर्मित का निर्माता से

सृष्टि का स्रष्टा से

संतान का अपनी माँ से , नाल काट दिये जाए के बाद भी

रचना का रचनाकार से

 

डोर दिखे न दिखे

खिंचाव महसूस करेंगे ही सभी

आज नहीं तो कल ,

हमेशा नहीं तो कभी न कभी

 -------------------------------

सत्य का त्याग करें

या असत्य का वरण

दोनों गलत कामों में गिने जयेंगे  

 

जहाँ सच में बांधी हुई है कोई डोर

हमारी भोथरी संवेदना कर दे

अस्वीकार ,

या

जहाँ कोई भी बन्धन न हो

खोज ले कोई काल्पनिक बन्धन

दोनों ग़लत हैं

 

पूरा विश्व एक बेतार के तार से जुड़ा हुआ है

हम महसूस नहीं कर पाते

एक काल्पनिक बंधन को सच माने

आत्मा की स्वतंत्रता तक पहुँच नहीं पाते

 

जो है वो दिखता नहीं

जहाँ नहीं है वहाँ खोज लेते हैं

हम दोनों जगह ग़लत हैं

अ  रज्जु   न .... 

रज्जु के न होने को अस्वीकार कर

अर्जुन की तरह

 

और हमें किसी कृष्ण की तलाश भी नहीं

***************************************

आ० गिरिराज भंडारी जी 

आपकी संशोधित रचनाओं से  मूल रचनाओं को  निवेदन अनुरूप प्रतिस्थापित कर दिया गया है

सादर.

आदरणीया प्राचीजी,
संकलन प्रस्तुत हुआ. डोर / धागा शीर्षक पर बेहतर प्रस्तुतियाँ आयीं थीं. किन्तु, कार्यालयी व्यस्तता के चलते इस बार कई रचनाएँ पढ़ नहीं पाया. इसका हार्दिक खेद है.  आयोजनों में ऐसा होना उचित नहीं कि रचनाकार या पाठक अपनी रचना के अलावा अन्य रचनाओं को न पढ़े या पढ़ ले तो अपने मंतव्यों से जागरुक न करे, टिप्पणी न दे. यह ’सीखने-सिखाने’ के मंच की परिपाटी नहीं होनी चाहिये.
 
जिन रचनाओं को आयोजन के दौरान मैं पढ़ गया था उन्हें पुनः पढ़ना आश्वस्तिकारक लगा. तथा जिन्हें नहीं पढ़ पाया था उनके वाचन से स्वयं को समृद्ध समझ रहा हूँ.

न पढ़ी जा सकी रचनाओं पर मेरी टिप्पणियाँ -

आदरणीय मिथिलेशजी : आपकी प्रथम रचना से गुजरने का सौभाग्य मिला था. वस्तुतः पंचचामर जैसे वर्णिक छन्दों में जहाँ लघु-गुरु का क्रम आवश्यक है, दो लघुओं का द्विकल एक गुरु की तर्ज़ पर मान्य नहीं होता. इस ओर ध्यान रखें.
आपकी द्वितीय प्रस्तुति को देख नहीं पाया था. बहर-ए-हजज की सालिम पर हुई यह नज़्म दिलखुश कर देने वाली है. तुकान्तता के निर्वहन को शर्त नहीं बनाया जाना ऐसे भी रोचक लगा.

ख़ुदा के दर से आये थे, ख़ुदा के दर को है जाना = ख़ुदा के दर से आये थे, ख़ुदा के दर को जाना है..

इस तरह किया जाय तो प्रवाह का अंत सधा हुआ होगा, ऐसा प्रतीत होता है.
बधाई आदरणीय मिथिलेशभाईजी.

आदरणीया राजेश कुमारी जी : आपकी द्वितीय प्रस्तुति एक अतुकान्त रचना है. मानसिक ऊहापोह को सार्थक अभिव्यक्ति देने का प्रयास आश्वस्त करता है कि आपकी संप्रेषणीयता के कई और रूपों से परिचित होना है. सादर बधाइयाँ.

आदरणीय खुरशीद खैरादी जी : आपकी द्वितीय प्रस्तुति भी हजज की सीमा में बँधी ग़ज़ल है. आपकी सोच और फ़िक्र का कायल होना बनता है. आप लगातार बेहतर कथ्य को शाब्दिक करते रहे हैं.
इस बार भी आपकी ग़ज़लें शान्दार हुई हैं. कतिपय शेर बिना प्रस्तुतकिये नहीं रह पा रह हूँ -

तसव्वुर की पतंग उड़ती है जब माज़ी के गर्दू में
तेरी छत पर लिए जाये कुँवारे प्यार का धागा

चले आना मेरे वीरा झड़ी सावन की लगते ही
सदा बनकर बहन की जब पुकारे प्यार का धागा

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी : आपकी दूसरी प्रस्तुति एक ग़ज़ल है. आपकी विशिष्ट सोच को सार्थक शब्द मिले हैं.
न रख फंदों को यूँ  ढीला जमाने में
उधड़ जाती कड़ी कमजोर रिश्तों की

हमेशा  चाहिए  मालिश  सहजता को
वजन मत रख दुखेगी पोर रिश्तों की

अगर टूटी तो  जोड़े  से नहीं जुड़ती
न ऐसे डालिया झकझोर रिश्तों की
हार्दिक बधाई हो.      
 
आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी : आपकी दूसरी प्रस्तुति कुण्डलिया छन्द सधे ढंग से प्रस्तुत हुई है. विशेषकर दूसरी कुण्डलिया विभोर कर गयी है.
इस सहभागिता के लिए हार्दिक आभार आदरणीय.

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडिवाला जी : आपकी दूसरी प्रस्तुति एक भावदशा है जो स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत हुई है. हार्दिक बधाई आदरणीय.

आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी : मंच के आयोजनों में आपकी प्रस्तुतियो की प्रतीक्षा रहती है. यह अवश्य है कि आपकी जल्दबाजी कई बार जानी-बूझी गलतियों का कारण बन जाती है. बहरहाल, आपकी दोहा प्रस्तुति के भाव श्लाघनीय है.
यह अवश्य है कि ’बँधना’ क्रिया में ’ब’ पर ’बन्धन’ की तरह अनुस्वार नहीं होता, बल्कि चन्द्र विन्दु होता है. अतः इस शब्द की मात्राओं की गिनती पर ध्यान रखना आवश्यक है. दूसरे, ’अनुशासन के डोर से’ को ’अनुशासन की डोर से’ कर लें.

आदरणीया उषा चौधरी साहनी जी : आपकी अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ तथा प्रयास के लिए बधाइयाँ.

आदरणीय राम आश्रय जी : आपकी निरंतर सहभागिता आपके प्रयास को और संयत करेगी. आपकी अभिव्यक्ति अवश्य आश्वस्त करती है कि आपका सतत प्रयास आपके संप्रेषण को उचित माध्यम देगा.
शुभ-शुभ

आदरणीय सुशील सरना जी : जीवन में स्वार्थपरक मानसकिता के कारण रिश्तों को जो हानि उठानी पड़ते एहै उसका आपने अपने ढंग से अभिव्यक्ति दी है. इस अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई.

भाई नादिर खान जी : आयोजन के शीर्षक ’डोर’ को ’विश्वास की डोर’ का प्रारूप देना भा गया. आपकी सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद.

आदरणीय प्रतिभा त्रिपाठी जी : आपकी प्रस्तुति की संवेदना से मन भर आया है. आपके शब्दों में समर्पण शिद्दत से उभर कर आया है. हार्दिक बधाई आदरणीया.

भाई गणेश जी : एक अत्यंत प्रासंगिक रचना हुई है. समाज के घृणित वं अतुकान्त व्यवहार को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है. यही जागरुकता तो किसी उत्तरदायी रचनाकार का हेतु है.
रात अँधेरे में
आये कुछ साये
अँधेरा छटा  
आखों में तैर गये लाल डोरे
फिर घंटों पनियायी आँखे
अंततः सब कुछ शांत.. . .  

इस ’शांति’ से जो कुछ उभर कर आ रहा है वह विद्रूपकारी है.
इस सचेत दृष्टि के हार्दिक बधाई गणेस भाई. रोमांच हो आया आपकी प्रस्तुति से गुजर कर. हार्दिक बधाई स्वीकार करें.

आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी : कुकुभ छन्द में हुई प्रस्तुति आयोजन में दिवस विशेष को इंगित करती मधुर बन पड़ी है. किन्तु इस भाव को सार्वभौमिक करते हुए इस छन्द के माध्यम से आपने अत्यंत संयत बात कही है.
यह युग युग की प्यास मिटाए, अनुपम प्रेम अमिय धारा!
विविध ताप को शांत करे यह, विजन बयार मलय कारा!!
घट भर प्रेम सुधा नित रखिये, मिला कूप जीवन प्यारा!
प्रेम डोर घट बांध सत्य फिर, भरता आज अमिय न्यारा!!
बहुत खूब आदरणीय. हार्दिक बधाइयाँ.

आदरणीय योगेन्द्र जी : कुण्डिलिनी छन्द वस्तुतः आधुनिक साहित्य का छन्द है. इस छन्द में प्रस्तुति का आना अत्यंत उत्साहवर्द्धक है. किन्तु, इस छन्द के विधान में एक और विन्दु होता है जिसका निर्वहन नहीं हुआ है. वह है, छन्द के प्रथम और अंतिम शब्द, शब्दांश या शब्द-समूह का एक ही होना, ठीक कुण्डलिया छन्द की तरह.
संभवतः आपकी किसी पहली प्रस्तुति से गुजरना हो रहा है. हार्दिक बधाई तथा शुभकामनाएँ.

आदरणीय हरि प्रकाश दूबे जी : आपकी आशु-रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय. आपने जिन परिस्थितियों में इस रचना को प्रस्तुत किया है उसका भान है मुझे. आपकी उक्त टिप्पणी को मैं देख चुका हूँ जिसमें आपने इस रचना के होने की रोचक जानकारी दी है. फिर भी आपकी यह रचना श्लाघनीय है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.

सादर

आदरणीय सौरभ सर, आपकी विस्तृत टिप्पणी ने एक बार फिर आयोजन में प्रस्तुत रचनाओं से गुजरने के लिए प्रेरित किया. आपकी टिप्पणियों के हवाले से रचना से गुजरना एक अलग अनुभव होता है. 

आपने मेरी प्रथम प्रस्तुति में जो मार्गदर्शन किया है----दो लघुओं का द्विकल एक गुरु की तर्ज़ पर मान्य नहीं होता-- ये त्रुटी हुई है, इस रचना में सुधार का प्रयास करूँगा और आगे से इस बात का विशेष ध्यान रखूँगा. 

आपने मेरी दूसरी प्रस्तुति पर जो मार्गदर्शन किया है--

ख़ुदा के दर से आये थे, ख़ुदा के दर को है जाना = ख़ुदा के दर से आये थे, ख़ुदा के दर को जाना है..

यह भी सही है, बस गुनगुनाते हुए लिख गया था. उसमे भी संशोधन हेतु निवेदन कर लूँगा.

दोनों रचनाओं पर स्नेह, सराहना और मार्गदर्शन के लिए हमेशा की तरह आपका हृदय से आभारी हूँ. नमन.

हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश भाई.

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Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . . .
"सुझावों को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सुशील सरना जी.  पहला पद अब सच में बेहतर हो…"
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Sushil Sarna posted a blog post

कुंडलिया. . . .

 धोते -धोते पाप को, थकी गंग की धार । कैसे होगा जीव का, इस जग में उद्धार । इस जग में उद्धार , धर्म…See More
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Aazi Tamaam commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"एकदम अलग अंदाज़ में धामी सर कमाल की रचना हुई है बहुत ख़ूब बधाई बस महल को तिजोरी रहा खोल सिक्के लाइन…"
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surender insan posted a blog post

जो समझता रहा कि है रब वो।

2122 1212 221देख लो महज़ ख़ाक है अब वो। जो समझता रहा कि है रब वो।।2हो जरूरत तो खोलता लब वो। बात करता…See More
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surender insan commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। अलग ही रदीफ़ पर शानदार मतले के साथ बेहतरीन गजल हुई है।  बधाई…"
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Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . . .
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन के भावों को मान देने तथा अपने अमूल्य सुझाव से मार्गदर्शन के लिए हार्दिक…"
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सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . . .
"गंगा-स्नान की मूल अवधारणा को सस्वर करती कुण्डलिया छंद में निबद्ध रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय…"
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