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क्या जाने
 
अब मेरे ज़ब्र के है क्या माने
तू कहे क्या,करे ,ये क्या जाने
 
आँख को मूंदना अदा गोया 
पाँव छाती पे,कब हो,क्या जाने
 
फैलना इक नशा शहर का है
गाँव कब खो गया ये क्या जाने
 
मंद कंदील तुम ने बाले तो 
रोशनी हो न हो ये क्या जाने
 
हम मुसाफिर है तो चलेंगे ही 
राहे मंजिल है क्या,ये क्या जाने
 
कलम गुस्ताख कुछ भी कहती है
कलम हो सर,ये कब,ये क्या जाने       

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Comment by ASHVANI KUMAR SHARMA on April 5, 2011 at 9:31am

thanx for liking vivekji

 

Comment by ASHVANI KUMAR SHARMA on March 11, 2011 at 11:39pm
vandana ji abhaar aap ka
Comment by ASHVANI KUMAR SHARMA on March 11, 2011 at 11:39pm
ganesh ji abhaar

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 9, 2011 at 9:27am
कलम गुस्ताख कुछ भी कहती है

कलम हो सर,ये कब,ये क्या जाने 

वाह अश्वनी जी वाह , क्या खुबसूरत शे'र निकाला है आपने, यमक अलंकार का भी प्रयोग कोट किये गए शे'र में परिलक्षित है | बधाई इस खुबसूरत ग़ज़ल पर |

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