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         धर्म...जब हम धर्म की बात करते हैं तो धर्म की अनेकों अवधारणाये उभर कर आतीं हैं सम्प्रदाय और कर्मकाण्ड पर दृष्टि जाती है,लेकिन धर्म केवल इन अवधारणाओं या शाखाओं तक ही सिमित नहीं बल्कि धर्म का एक वृहद पहलू  पवित्रतम हमारा ' कर्म' है जिसे सभी समाजों और भुगोलों से परे रखा गया है.   

  धर्म  वाद या सम्प्रदाय की सीमाओं से परे पवित्रतम और सनातन आत्मा,जो परमात्मा का अंश है, को उसके अंशी से मिलाने में सहायक बनने वाला 'कर्म' भी है। अब धर्म से बात आयी कर्म पर...तो वह पवित्रतम कर्म है क्या,ऐसे कौन से कर्म हैं जिन्हें 'योग' और 'साधना' हों और उस अंशी को पाने का लक्ष्य साधने में सहायक हों...ये थोड़ा चिंतनीय विषय है।

  गीता जी में स्पष्ट है कि अपने कर्तव्य का पालन करने से अर्थात दूसरों के लिए निष्काम भाव से कर्म करने से प्राणिमात्र का हित होता है(3/10-11)। दूसरों अर्थात समाज के लिए वो कार्य,जिसकी सामयिक समाज को आवश्यकता है।  हम जब लिखते हैं तब तो गीता जैसे पूजनीय ग्रन्थों के सन्दर्भ/आश्रय तो खूब लेते हैं (जैसा इस लेख में भी)...व्याख्यान/उपदेश/चिंतन भी खूब होते हैं,लेकिन बड़ी निराशा का विषय है जो क्रियान्वयन में बहुत कम मात्रा में  दिखतें हैं। 

  हम पढ़ते/सुनते हैं न गीता जी में,अपने लिए कर्म करना अनधिकृत चेष्टा है... शरीर का सदुपयोग ही स्वयं के काम आता है... उसे संसार की सेवा में लगा देने में ही सार्थकता है आदि आदि लेकिन कब चिन्तन करते हैं, कब मुल्यांकन करते हैं कि हमारे इस दुर्लभ शरीर का कितना सदुपयोग हो रहा है। इसे(शरीर) तो गति हमारी 'असीम कामनाएं' और हमारा अहं दे रहे हैं। मैं जैसा चाहूँ बस वही हो,मुझे जो अच्छा लगता है,जो चाहिए नहीं हो रहा,नहीं मिला तो कुछ भी (कृत्य/कुकृत्य)करने को तैयार। कामना के सिवाय ऐसा है भी क्या जो हमसे कुकृत्य करने को को बाध्य करता है? समय... परिस्थिति...भाग्य...कलियुग या फिर स्वयं ईश्वर?? शायद इनमे से कुछ नही बल्कि हमारी  कामना और अहं।

    मिली हुई वस्तु को निष्काम भाव से दूसरों की सेवा में लगा देना 'द्रव्य यज्'...द्र्व्यग्यस्तापो यज्ञा. स्वधर्म में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता से सहलेना 'तपो यज्ञ' है। यदि इन यज्ञों का महत्व हमने न समझा,अपने आचरण में न लाया तो ये विशाल यज्ञानुष्ठान आदि का प्रयोजन ही क्या! अब्राहम लिंकन का कथन भी हमें इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है ।उनका कहना था कि जब मैं कोई अच्छा काम करता हूँ तो मुझे अच्छा लगता है और जब बुरा कार्य करता हूँ तो बुरा,यही मेरा धर्म है।

  प्रश्न हो सकता है कि आज के समय में सभी सक्षम हैं, सरकार भी इतनी सुविधाएँ दे रही है, किसे क्या आवश्यकता हो सकती है?क्या किया जाये किसी के लिए?  इसका उत्तर हमारे पास ही है हम 'अपने' से उठकर सोंचे तो,अपनी विलासिताओं से थोड़ा सा हटकर दूसरों की आवश्यकता-पूर्ति/आपूर्ति के बारे में जानने का प्रयास तो करें,अपनी समस्याओं से उबरकर अगले के दुखों को जी कर देखें तो। हम जहाँ पहुंच कर संतुष्ट नहीं वहीं से कुछ पीछे देखें न जाने कितने लोग दिखेंगे जो यहीं तक आने को लालायित होंगे और वंचित भी,हम कुछ तो सहारा दे सकते हैं इन्हें। बहुत सी ऐसी समस्याएं अध में फंसी दिखेंगी जिन्हें हमारे तनिक से सहारे की आवश्यकता होगी। अनेक समस्याएं ऐसी दिखेंगी जिनका निवारण तो सब करना चाहते हैं पर पहल करने वाला कोई नहीं होता, हम कुछ तो कर सकते हैं!

    यदि हम केवल खुद को ही आगे बढ़ाने की लीक से कुछ हटकर सोचेंगे तो गर्त में तो चले नहीं जाएगे,न ही हमारे आगे जाने के रास्ते बंद हो जाएँगे बल्कि दूसरों(जिनका हमने सहयोग करने का प्रयास किया हैीै) की ढेर 

सारी शुभकामनायें और आशीर्वाद और स्नेह हमारे साथ होंगे जो हमारे अन्तःकरण को उर्जन्वित करेंगे।  सच...बड़ा सुखद है यह मार्ग भी,एक कदम तो बढ़ाएं। हाँ,हम स्वयं को कईयों से पीछे पा सकते हैं, लेकिन तनिक सोचें...हम समाज के बारे में नहीं भी सोचेगे तो क्या सर्वोपरि हो जायेंगे...किसी से तो पीछे किसी को तो रहना ही है।  

 

     

       लेकिन प्रायः दूसरों के लिए कार्य करने में  हम स्वयं को कर्ता मान बैठते हैं और हमारा 'अहं' विशेष रूप से सक्रिय हो जाता है,और कभी यही कर्तापन ममता/मोह/बंधन का भी कारण बनता है। 'स्वयं' तो अनादि है, निर्गुण ह, अव्यय है,परमात्मा है और शरीर नाशवान,गुणमय और अनात्मा। पहली बात तो स्वयं 'न करोति न लिप्यते' तो हम स्वयं करता हुए ही कहाँ! जो थोड़ा सा भी कुछ करके सीना चौड़ा करते हैं...'हमने किया है',दूसरी बात यदि हम  स्वयं को करता मानते ही हैंें तो 'स्वयं' है तो परमात्मा ही। उसे हम कर्ता मानकर उसे ही सब कर्म  समर्पित कर दें।  वास्तव में अहं (अ+हम) हावी हो जाता है अर्थात जो चिन्मय स्वरूप हमारा है, उससे हमारा अविवेक हमे अलग कर देता है और तब...हमारी तथा हमारे कर्मों की दिशा ही बदल जाती है, हम परम सत्य से न जुड़कर कर्मों के परिणाम(कर्मफल) के पीछे भागने लग जाते हैं। जिससे न हमारा कल्याण होता है और न ही समाज का।  

 

इसलिए धर्म कर्तव्य है... पवित्रतम कर्म है...साधना है... प्राण वायु है हमारी,जिसके बिना हम निष्प्राण हैं,और हमारा समाज भी। हम खुद को सही दिशा दें,समाज की दशा खुद ही सही होगी। हम समाज से हैं, समाज हम से हैं,समाज/हमको धर्म की आवश्यकता है...हम इस बात को समझें,माने और करें...समाज के लिए।   शुभ शुभ

मौलिक/अप्रकाशित

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Replies to This Discussion

कर्म अर्थात कार्य निष्पादन एक संचित ऊर्जा है ,इसलिए इसका क्षय नहीं होता तो फिर परिणाम की चिन्ता क्यों ? जैसा करोगे ,वैसा भरोगे |सदैव अच्छा करने की चेष्टा करनी चाहिए |आपके कर्म ही तो हैं जो भाग्य ,फिर प्रारब्ध बन कई जन्मों तक आपका पीछा करते हैं या धर्म बन आपको सन्मार्ग पर अभिमुख करते हैं |जीवन जीने की शैली 'मुक्त ' प्रकार की होनी चाहिए |कर्मों को करके विस्मृत करने का अभ्यास हो |गंगा को पाना है तो शान्तनु के पुत्र-प्रबाह की तरह अपने कर्मों को भी बिसर्जित करने की कला का अभ्यास करना चाहिए |सद्कर्म करेंगे तो अवसाद नहीं ग्रसेगा तथा भय और भूति दोनों से ऊपर का जीवन स्वतः प्राप्त होगा |दया ,क्षमा ,सेवा ,संयम ,दान और परोपकार आदि तो मोक्ष के पाथेय हैं |
वंदनाजी , बहुत दिनों बाद कुछ सार्थक और दिव्य पढ़ने को मिला |साधुवाद |

आदरणीय विजय मिश्र जी:

आप ने अपनी अनुमोदक प्रतिक्रिया देकर मेरा बहुत आत्मविश्वास बढ़ाया है। और...

//बहुत दिनों बाद कुछ सार्थक और दिव्य पढ़ने को मिला |साधुवाद |// 

यह आपने  यह कहकर मेरा कितना मान बढ़ाया है! अनुग्रहीत हूँ आदरणीय।

आपका हृदयतल से बहुत आभार।

सादर

आदरणीया वंदना जी:

 

आपका आलेख पाठक को चिंतन के लिए पर्याप्त सामग्री ही नहीं दे रहा, अपितु मार्ग-दर्शन दे रहा है, अच्छा मनुष्य बनने के लिए प्रेरित कर रहा है। यही नही, आपने धर्म और कर्म का सुन्दरतम समन्वय किया है।

 

असली यज्ञ है क्या? कितने लोग यज्ञ करवाते हैं या यज्ञों पर जाते हैं, आग में आहुति देते हैं, परन्तु असली यज्ञ है क्या? .. इस विषय पर सोचते हैं क्या?

 

खेद है कि कितने लोग “कर्मकाण्ड” के औपचारिक आनुष्ठान पर ही रूक जाते हैं। कई केवल कभी-कभी मंदिर जाने से, या घर में “रटी हुई आरती” करने से स्वयं को धार्मिक समझते हैं, और मन ही मन स्वयं को अन्य से अच्छा समझते हैं। परन्तु सच्ची आध्यात्मिकता है क्या? ... यह विचारणीय है।

 

धर्म का सच्चा ज्ञान हमें सुकर्म करने के लिए प्रेरित करता है, दुर्व्यवहार/दुष्कर्म से दूर रखता है।

 

आपने कहा, “पवित्रतम और सनातन आत्मा ... वह सनातन कर्म है क्या ?” इस प्रश्न का उत्तर अति सरल भी है, और अति कठिन भी। कठिन इस लिए कि इसके अर्थ को आत्मसात करने के लिए हमें “अर्थ” को अनुभव करना है, और इस अनुभव के लिए हमें एक विशेष रूप से जीने की आवश्यकता है।

 

वह सनातन कर्म है क्या ? .... non-injury, if we make it our dharma , we will be transformed, and in turn, the society will be transformed. What is non-injury? This word is as loaded as the word “dharma”. Non-injury in every aspect… physical, emotional, psychological … कभी भी किसी का दिल न दुखाएँ ... कभी भी।

हम स्वयं से एक प्रश्न पूछ सकते हैं... is all our time being spent as experiencer and enjoyer?  If so, with what kind, what quality of experience and enjoyment? इस प्रश्न के उत्तर के लिए गहन चिंतन और मनन चाहिए, और उस मनन से आया थोड़ा-सा उत्तर भी हमारा मार्ग-दर्शन कर सकता है। हम इस मनन के लिए तैयार हैं क्या?

 

आदरणीया वंदना जी, आपके आलेख ने मुझको मेरे हृदय से आते भावों को प्रेषित करने के लिए, साझा करने के लिए, प्रेरित किया, अत: आपका आभार।

आपके इस अप्रतिम आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई और नमन, आदरणीया।

 

सादर,

विजय निकोर

परम आदरणीय विजय निकोर सर:

आपके विचारों ने इस साधारण से लेख जहाँ परिपक्वता प्रदान की है वहीं हमें  सुमार्ग पर  प्रशस्त होने की सरलता भी।

आपने गहन चिन्तन को प्रेरित किया है,अपने बहुमूल्य विचारों के माध्यम से।

कोई भी विन्दु/प्रश्न सरल तभी हो पाता है जब उसके निचोड़ को हम आत्मसात कर पाते हैं। कठिन से सरल तक के दिव्य सफर की प्रेरणा...हम सबके लिए बहुत महत्पूर्ण है और जटिल भी। अभ्यास से सरलता की तरफ हम बढ़ सकते हैं शायद!

मुझे बहुत अच्छा लगा आदरणीय जो आपने मेरे लिखे पर इस तरह के ग्राह्य विचार देकर पूर्णता की तरफ बढ़ाया है...आपकी बहुत आभारी हूँ आदरणीय बहुत।

आपको सादर नमन आदरणीय।

बिदु जी

विलक्षण व्यक्तित्व के धनी तुलसीदास ने धर्म अधर्म को दो ही शब्दों में परिभाषित कर दिया है - पर हित सरिस धर्म नहीं भाई i पर पीड़ा सम नहि  अधमाई i इस नजरिये से आपका आलेख स्वागत योग्य है  i

प्रयास जारी रहे i   

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