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किसे सुनाएँ व्यथा वतन की/गजल/कल्पना रामानी

 1212212122

किसे सुनाएँ व्यथा वतन की।

है कौन बातें करे अमन की।

 

हुई हुकूमत हितों पे हावी,

हताश है, हर गुहार जन की।

 

फिसल रहे पग हरेक मग पर,

कुछ ऐसी काई जमी पतन की।

 

फरेब क़ाबिज़ हैं कुर्सियों पर,

कदम तले बातें सत वचन की।

 

निगल के खुशबू को नागफनियाँ,

कुचल रहीं आरज़ू चमन की।

 

ये किसके बुत क्यों बनाके रावण,

निभा रहे हैं प्रथा दहन की।

 

ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं चर्चे,

विमूढ़ चर्चा करें गगन की।

 

न जाने कब होगी “कल्पना” फिर

नवेली प्रातः नई किरन की।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on April 17, 2014 at 8:37pm

आदरणीय चन्द्रशेखर जी, जितेंद्र जी,  गिरिराज जी, शकील जी,शिज्जुजी, सचिन जी,  मीना जी, प्रिय बृजेश, मुकेश, आप सबका प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी से रचना का मान बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद

Comment by बृजेश नीरज on April 16, 2014 at 11:44pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई दीदी!

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 16, 2014 at 12:59pm

अच्छी गजल के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 16, 2014 at 9:08am

बहुत सुंदर गजल कही आपने आदरणीया कल्पना जी, हार्दिक बधाई आपको

फिसल रहे पग हरेक मग पर,

कुछ ऐसी काई जमी पतन की।............यह शेर बेहद पसंद आया .

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on April 15, 2014 at 7:55pm

आदरणीया कल्पना दीदी
अच्छी ग़ज़ल हुई है

ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं चर्चे,

विमूढ़ चर्चा करें गगन की।

क्या कहने..बहुत खूब


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 15, 2014 at 5:50pm

आदरणीया कल्पना जी , खूब सूरत ग़ज़ल के लिये आपको दिली बधाइयाँ !

Comment by शकील समर on April 15, 2014 at 4:11pm

फिसल रहे पग हरेक मग पर,

कुछ ऐसी काई जमी पतन की।

वाह! वाह! क्या कहने। दिली मुबारकबाद आदरणीया।

Comment by Sachin Dev on April 15, 2014 at 3:09pm

आदरणीय कल्पना जी, बेहद शानदार गजल पर हार्दिक बधाई आपको ! 

Comment by Meena Pathak on April 15, 2014 at 2:24pm

हमेशा की तरह एक और बेमिशाल रचना .. बधाई दी | सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 15, 2014 at 10:41am

बेहतरीन रचना आदरणीया बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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