For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

स्व के पार ... (विजय निकोर)

स्व के पार ...

 

हाथ से हाथ छूटने की

तारीख़ तो सपनों को पता है

हाथ फिर कभी मिलेंगे ...

तारीख़ का पता नहीं

 

तुम्हारे चले जाने के बाद

मेरे दिन और रात

उदास, चुपचाप, कतरा-कतरा

बहते रहे हैं

 

मेरे वक्त के परिंदे की पथराई पलकें

इन उनींदी आँखों की सिलवटों-सी भारी

उम्र के सिमटते हुए दायरों के बीच

थके हुए इशारों से मुझसे

हर रोज़ कुछ कह जाती हैं

और मैं रोज़ कोई नया बहाना लिए

एक दिन और माँग लिया करता हूँ

जानता हूँ

तुम आओगी ...

 

कब आओगी?

 

------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 614

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on April 15, 2014 at 7:30am

//रचना के मार्मिक भाव बड़े ही हृदयस्पर्शी हैं.
विछोह के लम्बे अर्से के बाद भी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता से सींचना...आपसे सीखे//

 

रचना पर ऐसी सराहना पाना मेरे लिए उत्साहवर्धक है। आपका हार्दिक आभार, आदरणीया वंदना जी।

 

सादर, विजय

Comment by vijay nikore on April 15, 2014 at 7:26am

आदरणीय सौरभ भाई, रचना की सरहाना के लिए और अंतिम पंक्ति पर प्रकाश डालने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।

सादर, विजय

Comment by vijay nikore on April 15, 2014 at 7:21am

//सच ....कुछ मेरे शब्दों जैसी लगी ये लाइन्स ...//

कोई भी रचनाकार इन शब्दों से प्रभावित होगा। ऐसी सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया प्रियंका जी।

 

Comment by Vindu Babu on April 8, 2014 at 10:12am
रचना के मार्मिक भाव बड़े ही हृदयस्पर्शी हैं.
विछोह के लम्बे अर्से के बाद भी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता से सींचना...आपसे सीखे.
आपको हार्दिक बधाई इस गम्भीर अभिव्यक्ति के लिए आदरणीय.
सादर
Comment by vijay nikore on April 8, 2014 at 6:26am

आदरणीय भाई लक्ष्मण जी, रचना की सराहना के लिए धन्यवाद।

Comment by vijay nikore on April 8, 2014 at 6:24am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई गिरिराज जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 7, 2014 at 11:34pm

आदरणीय विजय साहब, अंतिम पंक्ति में आया प्रश्न काश इस प्रस्तुति का हिस्सा न होता.

प्रतीक्षारत को क्या परवाह कि वो कब आये ?  अरे, चाहे जब आये... मर भी गये तो आँखें खुली रहेंगी.

आपकी संवेदनशीलता संभवतः मेरे कहे को समझ रही होगी.

एक अत्यंत मुलायम कविता के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ.

सादर

Comment by vijay nikore on April 5, 2014 at 12:27pm

//कितना प्रिय रहा होगा वो जिसे देखे बिना मरने का मन भी न करें और उसका वियोग कितना दारुण , ये सोचकर मन सिहर जाता है ! अत्यंत भावपूर्ण !// 

 

रचना के मर्म के साथ आत्मसात होने के लिए हा्र्दिक आभार, भाई अरून श्री जी।

 

Comment by vijay nikore on April 5, 2014 at 12:22pm

//बहुत खूब बेहद भावपूर्ण ह्रदयस्पर्शी रचना है दिली दाद कुबूल करें//


आपका हार्दिक आभार, भाई शिज्जु जी। स्नेह बनाए रखें।

Comment by vijay nikore on April 4, 2014 at 8:01am

//बहुत सुंदर भाव, सरल शब्दों से संजोयी रचना, बधाई स्वीकारें//

 

इस प्रशंसा के लिए आपका आभारी हूँ, आदरणीय जितेन्द्र भाई ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service