ये कैसा नव शोणित है , जिसमे जीवन रस घोल नहीं |
जीवन बगिया में महके ऐसा , योवन सौरभ का शोर नहीं ||
सरबस लूटे कोई फिर भी , जिस रक्त में कोई उबाल न हो |
वह खून नहीं जल धारा है , जिसमें कोई मलाल न हो |
जो देश धर्म के लिए जिए ,वह जीवन है वह जीवन है |
जो मानवता के लिए मरे , वह मानव है वह मानव है ||
मानवता को मानव से यों , हमने ही तो दूर किया |
दानवता को लाकर के यहाँ , हमने ही मसहूर किया ||
देवत्व इसी से लुप्त हुआ , और दिल भी दया से रिक्त हुआ |
दान गया फिर छुप सा कहीं ,नहीं मानव की कोई शान रही ||
सत्य अहिंसा सिर्फ़ यहाँ तो , पुस्तक में ही शेष रही |
और भ्रष्टाचार के कीचड़ से ही , दुनियाँ ये आबाद हुई||
प्रजापाल ने अपने ही कर , प्रजा का संहार किया |
चिकनी चुपड़ी बातें करके , पीछे से ही वार किया ||
मानव दानव के अंतर को , हमनें ही तो पाट दिया |
देवत्व कहाँ से आएगा , जब मानवता को चांट लिया ||
हर मानव यह प्रण आज करें ,गर कोई मानवता पर वार करें |
उस पशु सम मानव जीवन को ,इस धरा भार से मुक्त करें ||
दया भाव का दरिया भी ,हर उर में सदा श्रन्गार करे |
खाए कसम हर जीवन में |हम मानवता से प्यार करें ||
"अप्रकाशित व मौलिक "
चौथमल जैन
Comment
बहुत सुन्दर रचना, बधाई आप को
बढ़िया रचना.................
जो देश धर्म के लिए जिए ,वह जीवन है वह जीवन है |
जो मानवता के लिए मरे , वह मानव है वह मानव है.............बहुत सुंदर.
आपकी इस सुंदर प्रस्तुति पर सादर बधाई |
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