छुधित गरुण ने डैने फैलाये I एक लम्बी उड़ान भरी I नीचे हिमालय का नीरव साम्राज्य था I अचानक उन्हें एक भयानक भुजंग दिखाई दिया I सर्प तरुण था i त्वचा काली और चिकनी थी I काया बलिष्ठ थी I यह एक उत्तमं आहार हो सकता था I गरुण ने निश्चय किया I फिर एक जोरदार झपट्टा मारकर उसे उठाना चाहा I सर्प अधिक चपल था या फिर वह गरुण का इरादा भांप गया था I उसने तत्काल समीपस्थ एक विवर में शरण ले ली I गरुण के लिए विवर में प्रवेश करना असंभव था I अतः उन्हें बड़ा छोभ हुआ I वे छुघा शांति हेतु किसी अन्य दिशा में चले गए I पर्याप्त समय व्यतीत हो जाने पर वातावरण की सुरक्षा का विनिश्चय कर वह डरता हुआ विवर से बाहर आया I किन्तु उसका संकट दूर नहीं हुआ I एक विशालकाय आकृति ने उसे उठाकर अपने गले में डाल लिया i वहा उसे घंद्र-दर्शन हुए i माँ गंगा में लोटकर उसका भय ओर श्रम जाता रहा I वह आकृति कुछ और नहीं साक्षात् भगवान शिव थे Iशिव की ग्रीवा से आती गंध से वह समझ गया वहा हलाहल है I अर्थात उसके अपने विष की तो वहा कोई गणना ही नहीं है I
इस घटना को बीते पर्योप्त समय हो गया I अचानक शिवलोक में हलचल मची कि बैकुंठ से भगवान विष्णु पधारने वाले है I उनके स्वागत की तैयारिया होने लगी I नंदी ने श्रृंगार किया I शिवगणों ने वेश-भूषा ठीक की I स्वयं शंकर ने अपना साज सजाया I निर्धारित समय पर गरुणवाहन भगवान विष्णु वहा पधारे I शिव ने उनकी पूजा-अर्चना आदि कर उनका आतिथ्य पूर्ण किया I फिर वे आपस में वार्ता करने हेतु प्रवृत्त हुए I अब गरुण ने देखा भगवान शिव के गले में वही सर्प था जो उस दिन उनका आहार होने से बाल-बाल बचा था I सर्प उन्हें देखकर मुस्कराया और विनम्रतापूर्वक बोला -' कहिये गरुण जी ,क्या हाल -चाल है ?'
गरुण को लगा सर्प उनका उपहास कर रहा है I वे मन ही मन बहुत तमतमाए I पर अब वे कुछ कर नहीं सकते थे I वह विषधर सीना ताने निर्भय अपनी जिह्वा लपलपा रहा था I जीव ईश्वर की शरण में था I
गरुण जी को भगवान् के शब्द याद आये------'मामेकं शरणम् व्रज '
(काल्पनिक कथा )
मौलिक व् अप्रकाशित
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आदरणीय गोपाल नारायण जी बहुत ही सुंदर लघु कथा , संदेश संप्रेषित करती हुई कथा हेतु बधाई स्वीकारें । सादर
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