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ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
.
आसनों पे हैं निशाचर जंगलों में राम है।
साधुओं के वेष में शैतान मिलना आम है॥
.
राहुओं को जीवनामृत, नीलकण्ठों को गरल,
अंत में प्रत्येक मंथन का यही अंजाम है।
.
और कितना द्रोपदी के चीर को लंबा करे,
दम बहुत दु:शासनों में, मुश्किलों में श्याम है।
.
क़ातिलों,बहरूपियों,पाखंडियों के हाट में,
ज़िंदगी मेरी-तुम्हारी कौड़ियों के दाम है।
.
गर न खाना मिल सके दो वक़्त,आदत डाल दे,
चार दिन है भुखमरी फिर क़ब्र में आराम है।
.
मसखरों के हाथ में जनतंत्र की हैं चाबियाँ,
बत्तियाँ सारी बुझा के सो रही अव्वाम है।
.
धूप की मैली-कुचैली बस्तियों के उस तरफ़,
एक मैं हूँ,एक तू है और ख़ाली शाम है।
.
किस तरफ़ जाए 'रवी' किसको बनाए रहनुमा,
हर नज़र नाआशना है,हर डगर बदनाम है॥
.
मौलिक व अप्रकाशित॥

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Comment

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Comment by Ravi Prakash on November 10, 2013 at 6:47am
धन्यवाद!
Comment by annapurna bajpai on November 9, 2013 at 2:30pm

वाह !!! अति सुंदर गजल हेतु बहुत बधाई आपको । 

Comment by Sushil.Joshi on November 9, 2013 at 12:40pm

सुंदर भावों से सुसज्जित इस प्रस्तुति हेतु बहुत बहुत बधाई आ0 रवि प्रकाश जी.....

Comment by Ravi Prakash on November 9, 2013 at 9:57am
आ॰ सौरभ जी,मैं धन्यवादी हूँ कि आपने इस रचना को इतना समय दिया और इतना सूक्ष्म विवेचन किया। मैं आपके संकेत भली भाँति समझ गया। पुनः धन्यवाद।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 8, 2013 at 11:23pm

भाई रविप्रकाश जी, आपकी इस ग़ज़ल की आत्मा बहुत शुद्ध है और उसी कारण इसके दो-एक शेर अपने प्रतीकों के कारण उत्कृष्ट की श्रेणी में रखे जा सकते हैं. लेकिन मैं उसी आत्मा और प्रयुक्त होने वाले प्रतीकों की बिना पर आपसे एक महत्त्वपूर्ण तथ्य साझा करना चाहता हूँ. वो ये कि राम की संज्ञा निशाचरों के समानान्तर ’है’ के साथ उचित नहीं लगती, बल्कि ’हैं’ उचित होगा. यही कुछ श्याम के साथ होगा जहाँ दुःशासनों का प्रयोग हुआ है. यह तो हुई है एक बात.

दूसरे,  ज़िंदगी मेरी-तुम्हारी कौड़ियों के दाम है   में भी वाक्य बहुवचन का होगा नकि एकवचन का जैसा कि प्रयुक्त हुआ है.
आशा है, इन तथ्यों पर ध्यान देंगे.  वैसे आपका प्रयास बहुत संयत हुआ है.
बधाई तथा शुभकामनाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 8, 2013 at 7:36pm

आदरणीय रविप्रकाश जी 

शानदार ग़ज़ल हुई है, सभी अशआर पसंद आये..बहुत बहुत बधाई 

Comment by Ravi Prakash on November 7, 2013 at 5:01pm
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया!
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 7, 2013 at 3:30pm

Har nazar to ashna ha Aap kyun badnam hain. Excellent.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 7, 2013 at 2:27pm

आदरणीय ,रवि भाई  , एक अच्छी  गज़ल के लिये आपको बहुत बधाई !!!!

राहुओं को जीवनामृत, नीलकण्ठों को गरल,
अंत में प्रत्येक मंथन का यही अंजाम है। ------- वाह वा !!!!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 7, 2013 at 1:17pm

वाह रवि भाई वाह एक बहुत ही सुन्दर लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने सभी के सभी अशआर पसंद आये दिली दाद कुबूल फरमाएं.

कृपया ध्यान दे...

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