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ज़िंदगी ग़ुज़र गई - (रवि प्रकाश)

न बिजलियाँ जगा सकीं,
न बदलियाँ रुला सकीं।
अड़ी रहीं उदासियाँ,
न लोरियाँ सुला सकीं।

न यवनिका ज़रा हिली,
न ज़ुल्फ की घटा खिली।
उठे न पैर लाज के,
न रूप की छटा मिली।

जतन किए हज़ार पर,
न चाँद भूमि पे रुका।
अटल रहे सभी शिखर,
न आस्मान ही झुका।

चँवर कभी डुला सके,
न ढाल ही उठा सके।
चढ़ा के देखते रहे,
न तीर ही चला सके।

वहीं कपाट बंद थे,
जहाँ सदा यकीन था।
जिसे कहा था हमसफ़र,
वही तमाशबीन था।

कली-कली बहार की,
पुकार के चली गई।
वसंत का दुकूल भी,
उतार के चली गई।

न रंग था न रूप ही,
न नक़्श,न निशानियाँ।
सँभल सके थे जिस घड़ी,
बची थीं बस कहानियाँ।

बिना पिए न जी सके,
न ज़ख़्म आप सी सके।
समुद्र सी तृषा मगर,
न चार घूँट पी सके।

पड़ाव अनगिनत रहे,
कहीं न कोई अंत था।
तलाशते रहे जिसे,
वही मगर दुरंत था।

क़दम-क़दम सदा मिलीं,
अबूझ सी पहेलियाँ।
वही शिकन निगाह में,
वही खुली हथेलियाँ।

अनाम से मुकाम थे,
जहाँ-जहाँ नज़र गई।
किधर चली थी ज़िंदगी
कहाँ-कहाँ गुज़र गई॥

मौलिक व अप्रकाशित॥

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Comment by ajay sharma on November 6, 2013 at 10:56pm

it made me speechless.....bahut bahut pyar aur apekshaye\\\\\\\\\\\\\aagami ik aur sunder geet hetu  

Comment by Ravi Prakash on November 6, 2013 at 7:30pm
धन्यवाद विजय जी।
Comment by vijay nikore on November 3, 2013 at 3:37pm

इस खूबसूरत गीत के लिए बधाई, आदरणीय रवि जी।

Comment by Ravi Prakash on October 30, 2013 at 5:58pm
धन्यवाद महोदया। मैं सतत प्रयत्नशील हूँ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 30, 2013 at 10:12am

बहुत सुन्दर सुप्रवाहित कविता.. वाह!

बस थोडा सा और प्रयास इसे सुन्दर गीत का अकार दे सकता है..

हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर.

Comment by Ravi Prakash on October 28, 2013 at 1:16pm
Thanks a lot..
Comment by K.K.Singh Aamad Sadhupuri on October 27, 2013 at 10:41pm

BAHUT SUNDAR GEET HAI SAHAB .PADKAR MAN PRASANN HUA AUR DIL GADGAD HO GAYA..

Comment by Ravi Prakash on October 25, 2013 at 8:52am
धन्यवाद आ॰ नीरज जी।
Comment by बृजेश नीरज on October 24, 2013 at 10:12pm

बहुत सुन्दर रचना! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Ravi Prakash on October 24, 2013 at 10:08pm
आ॰ जोशी जी, प्रशंसा पाकर मैं अनुगृहीत हुआ। धन्यवाद।

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