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एक गजल पेश है, वज्न २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ 
.
फिर सूने दिल का सूना पन उफ़ तौबा तौबा 
सूखा अम्बर बंजर आंगन उफ़ तौबा तौबा 
.
दिल बेचारा हारा हारा सौतन जीती फिर 
मेरे भोले सैयां का मन उफ़ तौबा तौबा 
.
एक चौराहा चारों राहें मन भटकाती है
मंजिल गुम बेमतलब जीवन उफ़ तौबा तौबा  
.
हम तो बिसरी सूरत फिर से लेके बैठे है 
उनका नादाँ जिद्दी बचपन उफ़ तौबा तौबा 
.
चंदा मामा सूरज काका सब रिश्ते झूठे 
अब तो अपना सा हर दुश्मन उफ़ तौबा तौबा 
.
ऊँचाई पे जाकर सब कुछ छोटा दिखता है 
कैसा नजरों का पागलपन उफ़ तौबा तौबा 
खेतों की हरियाली में मौसम मौसम हम  
औ पीली चूड़ी की छनछन उफ़ तौबा तौबा 
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 21, 2013 at 7:17pm
वाह, बेहतरीन ग़ज़ल हुई है आदरणीया गीतिका जी !!
ऊँचाई पे जाकर सब कुछ छोटा दिखता है 
कैसा नजरों का पागलपन उफ़ तौबा तौबा ||   वाह वाह !!
Comment by वेदिका on August 4, 2013 at 8:50pm

आदरणीय अभिनव अरुण जी! 

आपका गज़ल के प्रति यह सकारात्मक रुख, और लेखन के लिए प्रेरित करेगा!

सादर !! 

Comment by Abhinav Arun on July 31, 2013 at 7:09pm

मुकम्मल ग़ज़ल हर शेर बोलता सा है जिंदाबाद लहजा क्या कहने वाह वाह -

.
ऊँचाई पे जाकर सब कुछ छोटा दिखता है 
कैसा नजरों का पागलपन उफ़ तौबा तौबा 
बहुत बड़ी बात इशारे में यही शायरा की मजबूती है लाजवाब !!
Comment by वीनस केसरी on July 11, 2013 at 4:14pm

swagat hai

Comment by वेदिका on July 11, 2013 at 2:35am

आपका बहुत बहुत शुक्रिया वीनस जी! 

आपका गजल पे आना हुआ, आपने गजल को देखा, परखा और तारीफ करी, मेरे लिए बहुत बहुत सौभाग्य की बात है। 

आपकी आभारी हूँ!!      

Comment by वीनस केसरी on July 11, 2013 at 2:06am
दिल बेचारा हारा हारा सौतन जीती फिर 
मेरे भोले सैयां का मन उफ़ तौबा तौबा 
.

.

हम तो बिसरी सूरत फिर से लेके बैठे है 
उनका नादाँ जिद्दी बचपन उफ़ तौबा तौबा 
.
चंदा मामा सूरज काका सब रिश्ते झूठे 
अब तो अपना सा हर दुश्मन उफ़ तौबा तौबा 
.
ऊँचाई पे जाकर सब कुछ छोटा दिखता है 
कैसा नजरों का पागलपन उफ़ तौबा तौबा 


वाह वा बहुत शानदार अशआर हुए हैं
एक से बढ़ कर एक
आपने तो ग़ज़ल को इतने कम समय में समझ और अपना लिया है कि हैरत होती है .... खूब दाद ..

Comment by वेदिका on July 8, 2013 at 12:51am

शुक्रिया आदरणीय शौर्य जी! 

ओ बी ओ में आपका स्वागत है! 

Comment by Drshorya Malik on July 8, 2013 at 12:07am

bahut sunder gajal, abhar

Comment by वेदिका on July 7, 2013 at 10:44pm

प्रिय महिमा जी! 

गजल पर आपकी शुभकामनाये पा कर अत्यंत हर्ष हुआ!

सस्नेह वेदिका!!  

Comment by MAHIMA SHREE on July 7, 2013 at 3:06pm
एक चौराहा चारों राहें मन भटकाती है
मंजिल गुम बेमतलब जीवन उफ़ तौबा तौबा  
 
खेतों की हरियाली में हम रूमानी मौसम 
औ पीली चूड़ी की छनछन उफ़ तौबा तौबा ...बहुत ही खुबसूरत गज़ल कही आदरणीया गीतिका जी .. बहुत ही अच्छा लगा बधाई आपको और ढेर सारी शुभकामनाएं

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