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रोया है कोई … नवगीत /वेदिका

घास का इक नर्म 

बिछौना बनाकर 

ओढ़ कर नीले  

गगन की सर्द चादर 

सोया है कोई …

ओस बिखरी है जो 

हरी हरी घास पर 

साँस भर भर आई 

हर साँस पर 

रोया है कोई …. 

कहीं पुरवाइयों में 

ओस की रुलाइयों में 

चूड़ियों सा चटका है 

टूटा, मेरी कलाईयों में 

बिखरा है कोई …

गर्म लहू जमा वह 

या ठंडी बरसात है 

कुहासे का झाग 

या तो चीख की आग

भिगोया है कोई … 

कत्थई निगाहें दौड़ी 

कितने सफेद कोस 

दर्द धूप में उड़ी,नर्म

आसुंओं की ओस 

खोया है कोई …. 

                 गीतिका 'वेदिका' 

 

मौलिक /अप्रकाशित 

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Comment by वेदिका on August 4, 2013 at 8:48pm

आदरणीय अभिनव अरुण जी! 

इतनी सुंदर प्रतिक्रिया और कोटि बधाईयों हेतु आपका बहुत बहुत आभार करती हूँ|

आभार आदरणीय अजय जी! 

सादर !!

 

Comment by Abhinav Arun on July 31, 2013 at 7:07pm

मधुर मधुर शब्द चित्र झरने सा प्रवाह लिए रचना के लिए कोटि कोटि बधाई और शुभकामनायें आदरणीया गीतिका जी 

Comment by ajay yadav on July 21, 2013 at 12:00pm

आदरणीया 

सुंदर लेखन |

Comment by वेदिका on July 16, 2013 at 2:06pm

आभार आदरणीय जितेन्द्र 'जीत' जी!

Comment by वेदिका on July 16, 2013 at 2:05pm

आभार आदरणीय अशोक जी!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 15, 2013 at 9:23pm

आदरणीया गीतिका वेदिका जी!

रचना को पढ़ कर ऐसा लगा की, रचना विरह वेदना की स्याही में भावो की कलम डुबो डुबो के लिखी गयी हो। 
बहुत सुंदर और मन को छूने वाली रचना के लिए अतिशय बधाई स्वीकारिये !  
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 14, 2013 at 12:11am

आदरणीया गीतिका जी सुन्दर रचना, सिर्फ लहू जमा.....वाले पद को छोड़ कर पूरी रचना सुन्दर है बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by वेदिका on July 11, 2013 at 11:05am

आपका बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नीरज जी! 

आपने रचना को इतना मान दिया!! 

Comment by Neeraj Nishchal on July 11, 2013 at 10:59am

आदरणीया गीतिका जी क्या खूब लिखा है आपने तो
सार्थक कर दिया अपने नाम को ....
बस इतना ही कहूँगा
आपकी कविता पढ़ के खोया है कोई ।

Comment by वेदिका on July 11, 2013 at 2:53am

आभार आ०  आशीष सलिल जी! 

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