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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा- अंक 36(Now Closed With 965 Replies)

परम आत्मीय स्वजन,

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 36 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है. इस बार का तरही मिसरा,हिन्दुस्तान को अपना दूसरा घर कहने वाले मरहूम पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ की बहुत ही मकबूल गज़ल से लिया गया है.

पेश है मिसरा-ए-तरह...

"अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं"

अ/१/भी/२/कु/१/छौ/२/र/१/क/१/रिश/२/में/२/ग/१/ज़ल/२/के/१/दे/२/ख/१/ते/१/हैं/२

१२१२    ११२२    १२१२    ११२

 मुफाइलुन फइलातुन  मुफाइलुन फइलुन

(बह्र: मुजतस मुसम्मन् मख्बून मक्सूर )

* जहां लाल रंग है तकतीई के समय वहां मात्रा गिराई गई है 
** इस बह्र में अंतिम रुक्न को ११२ की बजाय २२ करने की छूट जायज़ है 
रदीफ़ :- के देखते हैं  
काफिया :-  अल (ग़ज़ल, महल, संभल, टहल, निकल, चल, ढल, उबल आदि)
 

मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 28 जून दिन शुक्रवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक 30 जून दिन रविवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

अति आवश्यक सूचना :-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम दो गज़लें ही प्रस्तुत की जा सकेंगीं
  • एक दिन में केवल एक ही ग़ज़ल प्रस्तुत करें
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिएँ.
  • तरही मिसरा मतले में इस्तेमाल न करें
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी रचनाएँ लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये  जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो   28 जून दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.


मंच संचालक 
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह) 
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Replies to This Discussion

शुक्रिया, करम मेहरबानी......................

वाह वाह आदरणीय लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने सभी के सभी अशआर कमाल के हैं ढेरों दाद कुबूल फरमाएं.

धन्‍यवाद अरुन जी। 

सही समय पे जो खुद को बदल नहीं पाते
वही दरख्‍़त कभी हाथ मल के देखते हैं।

वाह सर जी उम्दा ग़ज़ल .....बधाई हो.....

धन्‍यवाद अतीन्‍द्र जी । 

"विदा के वक्‍त में दुल्‍हन के हाथ की मेंहदी इसी में ख्‍़वाब कई रंग कलके देखते हैं।

सदा ही चालऔ तिकड़म कपट से काम लिया कहॉं येलोग कभी खुद को छलके देखते हैं।"...वाह! जी वाह..क्या खूब शेर पेश किया, बहुत खूब आदरणीय..तिलक राज जी, तहे दिल से दाद कुबूल कीजीऐ

धन्‍यवाद जितेन्‍द्र जी। 

आदरणीय, उम्दा ग़ज़ल के लिये बधाई

धन्‍यवाद सत्‍यनारायण जी। 

बहुत दिनों से नया कुछ नहीं कहा हमने 
किसी के दर्द के दरिया में जल के देखते हैं।...kya bat kahi hai shradhey Tilak Raj Kapoor sir wah!

धन्‍यवाद अविनाश जी। 

आदरणीय तिलक कपूर जी, सभी अशआर अच्छे हुए हैं, मतला बहुत ही खुबसूरत है, गिरह  खूबसूरती तो देखते ही बनती है, वाह वाह और मेहँदी वाला शेर … क्या कहने, बहुत बहुत बधाई इस खुबसूरत ग़ज़ल पर. 

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