व्रत पर्वोत्सव -- एक समीक्षा (भाग -1)
व्रत , पर्व और उत्सव हमारी लौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए सशक्त साधन हैं , इनके आन्न्दोल्लास के साथ ही हमे उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है । वास्तव मे सम्पूर्ण श्रष्टि का उद्भव आनन्द से ही है और यह सृष्टि मे स्थित भी है । भारतीय पर्वों के मूल मे भी इसी आनन्द और उल्लास का समावेश है । दुःख , भय, शोक, मोह तथा अज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति और अखण्ड आनन्द की प्राप्ति ही इन व्रत पर्वोत्सवों का लक्ष्य है । यही कारण है कि ये व्रत और पर्व प्राणी को अंतर्मुख होने की प्रेरणा प्रदान करते है । स्नान , पूजन , जप , दान , हवन इत्यादि कृत्य एक प्रकार के व्रत है । इनमे से प्रत्येक मनुष्य की वाह्य वृत्ति को अंतर्मुख करने मे समर्थ है।
व्रत
व्रताचरण से मनुष्य को उन्नत जीवन जीने की योग्यता प्राप्त होती है । व्रतों मे तीन व्रतों की प्रधानता है – 1 – संयम नियम का पालन , 2- देवाराधन तथा , 3- लक्ष्य के प्रति जागरूकता । व्रतों मे से अंतकरण की शुद्धि के साथ साथ वाह्य वातावरण मे भी पवित्रता आती है तथा संकल्प शक्ति मे दृढ़ता आती है ।
व्रतों के भेद
व्रत दो प्रकार से किए जाते है 1- उपवास अर्थात निराहार रह कर, 2- एक बार संयमित आहार के द्वारा । इन व्रतों के कई भेद है – 1) कायिक – हिंसा आदि के त्याग को कायिक व्रत कहते है । 2-) वाचिक – कटु वाणी , चुगलखोरी तथा निंदा का त्याग करना और सत्य परिमित तथा हितयुक्त मधुर भाषण वाचिक व्रत कहलाता है । 3-) मानसिक- काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य , ईर्ष्य तथा राग द्वेष आदि से रहित रहना मानसिक व्रत कहलाता है ।
मुख्य रूप से अपने यहाँ तीन प्रकार के व्रत माने जाते है :- 1- नित्य, 2- नैमित्तिक 3- काम्य ।
नित्य – वे व्रत हैं जो भक्ति पूर्वक भगवान की प्रसन्नता के लिए निरंतर कर्तव्यभाव से किए जाते है । एकादशी प्रदोष, पुर्णिमा आदि व्रत इसी प्रकार के है ।
नैमित्तिक - किसी निमित्त से जो व्रत किए जाते है वे नैमित्तिक व्रत कहलाते है जैसे – पापक्षय के निमित्त चंद्रायण , प्रजापत्य आदि व्रत इसी श्रेणी मे आते है ।
काम्य – ये व्रत किसी विशेष कामना को लेकर किए जाते है ।
व्रतों के अधिकारी
धर्म शास्त्रों के अनुसार अपने वर्णआश्रम के आचार विचार मे रत रहने वाले, निष्कपट, निर्लोभी, सत्य वादी, सम्पूर्ण प्राणियों का हित चाहने वाले, वेद के अनुयायी, बुद्धिमान तथा पहले से ही निश्चय करके यथावत कर्म करने वाले व्यक्ति ही व्रतों के अधिकारी होते है । उपर्युक्त गुण सम्पन्न ब्रामहन , क्षत्रिय , वैश्य ,शूद्र पुरुष और स्त्री सभी व्रत के अधिकारी होते हैं । सौभाग्यवती स्त्रियॉं के लिए पति की अनुमति से ही व्रत करने का विधान है ।
यथाविधि व्रत सम्पन्न होने पर व्रत का उद्यापन करना भी आवश्यक है तभी व्रत की सफलता है ।
अन्नपूर्णा बाजपेई
मौलिक अप्रकाशित
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बहुत अच्छी जानकारी! आपका साधुवाद इतनी आवश्यक जानकारी साझा करने के लिए!
आपका हार्दिक आभार बृजेश जी ।
हार्दिक आभार राजेश कुमारी जी ।
बहुत अच्छी जानकारी साझा किया है आपने, आदरणीया. व्रत वस्तुतः क्रिया का अनुभाग हैं जिसमें कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि का प्रावधान बनता है. यहीं से तप का पूर्वाभ्यास है.
इस विन्दुवत् लेख को साझा करने के लिए आपका सादर आभार
आदरणीय गुरु जी आपका हार्दिक आभार । आपके विषय मे सुन रखा था आपका प्रतिभाव हमारे लिए अनमोल है आप इसी प्रकार मार्ग दर्शन एवं उत्साहवर्धन करते रहें । सादर ।
दीदीजी.. हम कौनी करम के गुरु ? इस मंच की कक्षाओं में सभी के साथ सीखने के क्रम में तनिक बेसी हल्ला-गुल्ला करते रहते हैं..
सादर
आपके गुरूकुल में एक शिष्य (शिष्या के रूप में) और बढ़ा। बस हम ही एकलव्य रह गये।
बृजेश भाईजी, आदरणीया ने अजास्वामी को द्रोणाचार्य समझ लिया था. ..
आदरणीय महान व्यक्तियों की यही तो महानता होती है की वे स्वयम को हमेशा छोटा बताते है । हमे आपका सहयोग मिल रहा है हम भाग्यशाली हैं और इसके लिए हम बृजेश जी का तहे दिल से धन्यवाद करते है कि उन्होने हमे इस मंच से जोड़ा । अन्यथा हम इस मंच से अनभिज्ञ थे ।
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