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जिस वक्त कोई

बना रहा होता क़ानून

कर रहा होता बहस

हमारी बेहतरी के लिए

हम छह सौ फिट गहरी

कोयला खदान के अंदर

काट रहे होते हैं कोयला

जिस वक्त कोई

तोड़ रहा होता क़ानून

धाराओं-उपधाराओं की उड़ा-कर धज्जियां

हम पसीने से चिपचिपाते

ढो रहे होते कोयला अपनी पीठ पर..

जिस वक्त कोई

कर रहा होता आंदोलन

व्यवस्था के खिलाफ लामबंद

राजधानियों की व्यस्ततम सड़कों पर

हम हाँफते- दम साधते 

लौटते खदान के बाहर...

जिस वक्त कोई

देख रहा होता घरों में

मीडिया का मायाजाल

हम खदान के बाहर

छोटी-छोटी गुमटियों में

चाय, पान, बीडी

और अक्सर  दारू के सहारे

भुलाने की कोशिश करते

काल-कोठरी सी खदान की कडुवाहटें 

और जिस्म की अंतहीन थकान की पीड़ा....

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Comment by Ashok Kumar Raktale on May 28, 2013 at 8:20am

आदरणीय अनवर सौहेल साहब सादर, अपनी कर्म स्थली के दुष्कर हालातों से परिचय के क्रम में आपकी यह रचना भी बहुत सटीक है. आपकी बात सीधे दिल तक पहुंची. सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by विजय मिश्र on May 23, 2013 at 12:30pm
यह पहलू जितना जीन्दे श्रमवीरों की मर्यादा की स्तुति करता है ,दूसरा पहलू उतना ही बदतर इंसानों की एक पोटली है जो कागज पर सोख्ता की तरह सब सोख लेते हैं ,बहुत सही चित्रण किया है अनवर भाई कि जिसे लोग लूट-खसोट की वस्तु बनाये हुए है वह कितने दुहसाध्य श्रम और अमानवीय परिश्रमों से प्राप्य है .
Comment by बृजेश नीरज on May 23, 2013 at 10:10am

बहुत सुन्दर! आह निकल जाती है ऐसी रचना पढ़कर! ढेरों बधाई स्वीकारें।

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