आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
सादर वन्दे.
ओबीओ लाईव महा-उत्सव के 30 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है. पिछले 29 कामयाब आयोजनों में रचनाकारों ने 29 विभिन्न विषयों पर बड़े जोशोखरोश के साथ बढ़-चढ़ कर कलमआज़माई की है. जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है.
इसी सिलसिले की अगली कड़ी में प्रस्तुत है :
विषय - "शिशु/ बाल-रचना"
आयोजन की अवधि- शनिवार 06 अप्रैल 2013 से सोमवार 08 अप्रैल 2013 तक
उदाहरण स्वरुप साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --
शास्त्रीय-छंद (दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका इत्यादि)
अति आवश्यक सूचना : ओबीओ लाईव महा-उत्सव के 30 में सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अधिकतम तीन स्तरीय प्रविष्टियाँ ही दे सकेंगे. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जस सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
(फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 06 अप्रैल दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा )
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वाह हाइकू
बृजेश नीरज जी
बचपन के.................
आपका हार्दिक आभार!
अच्छे हाइकू , बधाई बृजेश जी |
आपका बहुत आभार आदरणीय!
आदरणीय महोदय
सादर दूसरी रचना प्रस्तुत है.
अपना बचपन
------------
जेठ की दुपहरिया में
नागिन सी काली सड़क
नन्हें नन्हे दो पाँव
मंजिल की तलाश में
राह में पड़े पत्थर
हरेक ठोकर पर
मंजिल है कहीं और
का निशान देते हैं
बढ़ जाते है कदम
टपकते लहू के साथ
आने वालों के लिए
राह नयी दिखाते हैं
क्वार की धूप से
आबनूस हुआ तन
पावस की बरखा से
धुलता हुआ बदन
पूस माघ कड़क ठण्ड
चलती शीतल पवन
नहीं करती विचलित
पग आगे बढते जाते हैं
माँ का तार तार आँचल
अम्बर और धरा मध्य
जीवन है यही क्या
का एहसास कराते हैं
हर दिन सवेरे शाम
बचपन था यहीं कहीं
कूड़े के ढेर में
ढूँढने जाते हैं
अपना बचपन
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
७-४-२०१३
मौलिक /अप्रकाशित
जीवन के सत्य से परिचित कराती हुई सुन्दर रचना। यह हमारे समाज का कटु सत्य है कि समाज के बड़े हिस्से में बचपन बाल सुलभ मन जिम्मेदारियों और पेट भरने की मशक्कत के बीच कहीं दबा कुचला है। इस सुन्दर रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकारें।
आप विद्वान हैं और मुझसे वरिष्ठ भी, उचित तो नहीं लगता फिर भी एक बात कहना चाहता हूं कि रचना को एडिटिंग की आवश्यकता थी।
//का निशान देते हैं//
//का एहसास कराते हैं//
इन पंक्तियों की ‘का’ से शुरूआत मुझे अखरी।
//मेरा बचपन//
यदि ‘मेरा’ के स्थान पर ‘अपना’ होता तो शायद अधिक उपयुक्त होता।
मेरी टिप्पणी को अन्यथा न लें।
सादर!
सादर स्वागत है
आप जरूरी संशोधन कर दें. यहाँ सब बराबर हैं. आपकी हमारी सोच भी एक हि है.
आदरणीय ब्रजेश जी
आदरणीय आपने मेरे कहे को मान दिया आपका आभार!
आदरणीय प्रदीप जी!
व्यथित कर देने वाली सच्चाई उकेरी आपने ....
कूड़े के ढेर में
ढूँढने जाते हैं
अपना बचपन
सच/कड़वा
वाह वाह आदरणीय प्रदीप सर जी बहुत बढ़िया और सुखद प्रयास हुआ है सादर बधाई स्वीकरें
छंद मुक्त रचनाओं में जब उन्मुक्त हो कर आप विचरते हैं तो आपके विचार और सोच खुल कर बोलते हैं .....एक प्रभाव शाली रचना
अम्बर और धरा मध्य
जीवन है यही क्या
का एहसास कराते हैं
हर दिन सवेरे शाम
बचपन था यहीं कहीं
कूड़े के ढेर में
ढूँढने जाते हैं
अपना बचपन.....वाह मन को छू लिया इन पंक्तियों ने प्रदीप जी
सुन्दर अभिव्यक्ति....
पर यह बच्चों के लिए नहीं है आदरणीय प्रदीप जी
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