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ग़ज़ल "सजा कर रख लिया हमने जो खाली आबगीने को "

============ग़ज़ल =============
उड़ा कर छत हवा जब जब करे जाया पसीने को 
गरीबी कोसती फिरती है तब सावन महीने को 

बफा करने के बदले बेबफाई जब मिली यारो 
बढ़ा दर्द-ए जिगर हद से नहीं आराम सीने को 

मेरे हमराज मुझको इक शराबी मान बैठे हैं 
सजा कर रख लिया हमने जो खाली आबगीने को 

इलाहबाद जाकर पापियों ने पाप यूँ धोये 
हुई गंगा वहाँ मैली बचा पानी न पीने को

क्या सूरत है क्या सीरत है क्या है तकदीर पत्थर की 
उसे मालूम हो जिसने तराशा इस नगीने को

मचल कर जो समंदर में बड़े तूफ़ान लाती हैं 
वही मौजें चलाती हैं जवानी के सफीने को 

उजाले बांटने को दीप जलता आग पी पी कर 
मैं नफरत पी रहा हूँ "दीप" की मानिंद जीने को 

संदीप पटेल "दीप"

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 31, 2013 at 8:59pm

आदरणीय आरती जी सादर

आपका बहुत बहुत शुक्रिया और सादर आभार इस हौसलाफजाई के लिए

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 31, 2013 at 8:58pm

आदरणीय नादिर खान साहब सादर

आपको ग़ज़ल के ये अशआर पसंद आये और आपसे दाद मिली

आपका बहुत बहुत शुक्रिया

स्नेह यूँ ही बनाये रखिये

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 31, 2013 at 8:56pm

आदरणीय गणेश बागी सर जी सादर प्रणाम

क्षमा चाहता हूँ इतने बिलम्ब में जबाब देने के लिए

मतले में गरीबी इसीलिए कहा क्यूंकि लोग अक्सर गरीबी को कोसते हैं लेकिन बेचारी गरीबी का इसमें क्या दोष इसीलिए

और हाँ जहां तक मेरा ज्ञान है क्या को गिराया जा सकता है

मैं और किसी की आस्था को ठेस ????

शायद लेखन में दोष है कहीं मेरे संभवतः मैं इसमें जल्द ही सुधार करने का प्रयास करूँगा

आपका बहुत बहुत शुक्रिया और सादर आभार सर जी

स्नेह यूँ ही बनाये रखिये सादर

Comment by Aarti Sharma on January 30, 2013 at 8:16pm

बहुत खूब संदीप जी..बधाई स्वीकारें..

Comment by नादिर ख़ान on January 23, 2013 at 1:17pm

मचल कर जो समंदर में बड़े तूफ़ान लाती हैं 
वही मौजें चलाती हैं जवानी के सफीने को 

उजाले बांटने को दीप जलता आग पी पी कर 
मैं नफरत पी रहा हूँ "दीप" की मानिंद जीने को 

क्या बात है, बहुत  उम्दा बात कही आपने बधाई ... 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 22, 2013 at 10:11pm

मतला बरबस ही आकर्षित करता है, पर गरीबी कोसती है ? यह बात कुछ बन नहीं रही |

//इलाहबाद जाकर पापियों ने पाप यूँ धोये 
हुई गंगा वहाँ मैली बचा पानी न पीने को//

यह शेर एक तरह से आस्था का मज़ाक उड़ाता लग रहा, फिर भी मिसरा उला का समर्थन मिसरा सानी नहीं कर रहा, ऐसा लग रहा है जैसे वहां के लोग पीने के पानी हेतु गंगा जल पर ही निर्भर है | 

//क्या सूरत है क्या सीरत है क्या है तकदीर पत्थर की//

क्या ...क्या को गिराकर पढ़ा जा सकता है ?

//मचल कर जो समंदर में बड़े तूफ़ान लाती हैं 
वही मौजें चलाती हैं जवानी के सफीने को //

बढ़िया शेर, बधाई हो |

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