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हम स्वछंद हैं कवि .....

हम स्वछंद हैं कवि .....

हमको नहीं छंद अलंकार का है ज्ञान ,
हम स्वछंद हैं कवि बस भाव हैं प्रधान .

आचार्य गिन मात्रा कहते लिखो निर्धन ,
लिखा अगर गरीब तो क्या हो जायेगा श्रीमान !

हालात जो देखे सीधे सीधे लिख दिए ,
पढ़कर ''वे'' बोले व्याकरण का कुछ तो रखते ध्यान .

कहते अलंकार से कविता का कर श्रृंगार ,
हम 'रबड़ के छल्ले ' देते न उनको कान .

है नहीं कविता में अपनी प्रतीक ,बिम्ब,गुण ,
जूनून है बस लिखने का न आप हों परेशान .

हमको नहीं छंद , अलंकार का है ज्ञान ,
हम स्वछन्द हैं कवि बस भाव है प्रधान !!

डॉ शिखा कौशिक 'नूतन'

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 5, 2012 at 9:41am

बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया सिखा जी
बहुत उत्तम सन्देश परक रचना के बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by वीनस केसरी on October 4, 2012 at 11:13pm

डॉ. शिखा जी आपकी स्वछंदता को कोटि कोटि प्रणाम व सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई

Comment by seema agrawal on October 4, 2012 at 8:48pm

बहुत सादगी और बेबाकी से बात कही है शिखा जी  आपने ............. फिर भी
ज्ञान ,प्रधान ,ध्यान
श्रीमान कान, परेशान
आदी तुक युक्त शब्दों का
है आपको सम्यक ज्ञान 
काव्य से आप नहीं
लगती अनजान 
यूं ही पहनाती  रहिये
अपने भावों को 
शब्दों का परिधान .....शुभकामनाएं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 4, 2012 at 8:36pm

बहुत स्वछन्द भावाभिव्यक्ति  हर इंसान की अपनी अलग पहचान है 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 4, 2012 at 6:34pm

सभी पहले होते है  कवि स्वछन्द

उनकी भी अभियक्ति करते पसंद 
फिर मर्मग्य शिल्प का ध्यान  
हो जाता स्वछन्द कवि को भान |
हमें भी यूँ ही समझ अब आई 
अभिव्यक्ति पर आपके बधाई | 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 4, 2012 at 6:08pm

सुन्दर आत्म-स्वीकारोक्त अभिव्यक्ति.

स्वच्छंदता के दायरे बहुत बड़े होते है, और उसमें भाव बिखर भी सकते है, पर यदि उन भावों को शिल्प की सीमाएं प्रवाह व व्याकरण का श्रृंगार मिले तो बिखराव, निखार में बदल जाता है....... आगे रचनाकार क्या तय करना चाहता है, इसकी स्वच्छंदता तो उसको सदा ही रहती है..

हार्दिक शुभकामनाएं .

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