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मैं और मेरी कृत्य के बीच एक रिक्त सदा से 

खुद से खुद को जकडे जंजीरों के शून्य हो जैसे

बंधे है एक दूसरे से बाहों में बाहें डाल कर 
फिर भी एक बड़ा घेरा जो घिर न रहा हो जैसे 

युग्म एकाकार हैं संभावनाएं भी अपरम्पार हैं 
लग रहा फिर भी एकांत भाग्य में बदा हो जैसे

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Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on March 3, 2012 at 12:21pm

 सशक्त रचना बधाई स्वीकार करें 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 2, 2012 at 11:20pm

मैं और मेरी कृत्य  के स्थान पर  मैं और मेरा कृत्य होगा, आनन्दजी.

शून्य हो  के स्थान पर शून्य हों  होगा. इसी तरह, बंधे है  के स्थान पर बंधे हैं  होना चाहिये न ?

शब्दभाव समीचीन हैं.  प्रयासरत रहें. 

धन्यवाद.

Comment by Abhinav Arun on March 2, 2012 at 9:18pm

युग्म एकाकार हैं संभावनाएं भी अपरम्पार हैं 
लग रहा फिर भी एकांत भाग्य में बदा हो जैसे

shri anand ji एक सशक्त रचना हेतु हार्दिक बधाई !!

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 2, 2012 at 7:45pm

वत्स जी, बहुत खूब बन पड़ी है ये कविता. बधाई.

Comment by Anand Vats on March 2, 2012 at 1:51pm

शुक्रिया भाई संदीप जी 

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 2, 2012 at 1:32pm

शानदार भावना प्रधान रचना पर बधाइयाँ आनंद भाई जी| अति सुन्दर| साभार,

Comment by Anand Vats on March 2, 2012 at 1:31pm

बहुत बहुत शुक्रिया राजेश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 2, 2012 at 1:13pm

युग्म एकाकार हैं संभावनाएं भी अपरम्पार हैं 
लग रहा फिर भी एकांत भाग्य में बदा हो जैसे

bhaavnaon ka srot aur chitra dono hi kavita ki visheshta hai.

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