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पुरवा ने ली अंगड़ाई

हे पिया, तू अब तो आजा 

पुरवा ने ली अंगड़ाई l

सिहर उठा ये तन मन मोरा 

है बरखा बहार आई ||

 

काँप रहा तन ये अपना

बज रहा यूँ ही कंगना |

तनहा तनहा जीते जीते 

अब आँख है भर आई ||

 

हे पिया, तू अब तो आजा 

पुरवा ने ली अंगड़ाई ll

 

सज गए सभी नज़ारे 

तन पे गिर रही फुहारें |

धीरे धीरे रुक रुक के 

अब तो चल रही पुरवाई ||

 

हे पिया, तू अब तो आजा 

पुरवा ने ली अंगड़ाई ll

 

उमड़ घुमड़ बादल आये 

मन में प्यास जगाये |

सिहर सिहर यूँ  ठहर  ठहर

अब तन में आग लगाई ||

 

हे पिया, तू अब तो आजा 

पुरवा ने ली अंगड़ाई l

सिहर उठा ये तन मन मोरा 

है बरखा बहार आई ll 

 

                   अतेन्द्र कुमार सिंह "रवि" 

 

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 3, 2011 at 8:52pm

अत्येंद्र जी, सावन का मौसम है ही कुछ ऐसा जो साथी की जुदाई का दर्द और भी बढ़ा देता है, उसपर ये बरखा...वोह , बहुत ही खुबसूरत रचना, बधाई स्वीकार करे |

Comment by आशीष यादव on August 3, 2011 at 7:07pm

is बरखा के mausam में एक birhini के मनोभाव को प्रदर्शित किया है आपने,
एक सुन्दर rachna hetu bahut bahut badhai|

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