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ग़ज़ल - चली आयी है मिलने फिर किधर से ( गिरिराज भंडारी )

चली आयी है मिलने फिर किधर से

१२२२   १२२२    १२२

जो बच्चे दूर हैं माँ –बाप – घर से

वो पत्ते गिर चुके समझो, शज़र से

 

शिखर पर जो मिला तनहा मिला है

मरासिम हो अहम, तो बच शिखर से

 

रसोई  में  मिला  वो स्वाद  आख़िर

गुमा था जो किचन में  उम्र  भर से  

 

तू बाहर बन सँवर के आये जितना

मैं भीतर झाँक सकता हूँ , नज़र से

 

छिपी  है ज़िंदगी  में  मौत  हरदम

वो छू  लेगी  अगर  भागेगा डर से

 

खुशी बेनाम है, ज़िद्दी है, बस वो

चली आयी है मिलने फिर किधर से

 

लिये  कश्कोल अब  वो  घूमता  है

गदा खाली  न  भेजा जिसने दर से

 

तू चाहे चल, घिसट या  दौड़ता  रह

नहीं मुमकिन अलग  होना सफ़र से   

********************************** 

औलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी 8 minutes ago

आदरणीय चेतन प्रकाश भाई ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक  आभार 
आदरणीय आपकी सलाह उचित है , सलाह के अनुसार सुधार अवश्य कर लूंगा , आपका पुनः आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी 11 minutes ago

आदरणीय सुशील भाई  गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिए आपका आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी 12 minutes ago

आदरणीय लक्ष्मण भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by Chetan Prakash 18 hours ago

खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ।

"छिपी है ज़िन्दगी मैं मौत हरदम

वो छू लेगी अगर ( जो तू ) भागेगा डर के 

सुझाया हुआ  विकल्प कदाचित  बेहतर होता 

क्योंकि  पूरा शे'र  बिना कर्ता रह जाएगा !

सादर!

Comment by Sushil Sarna on Saturday
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत सुंदर यथार्थवादी सृजन हुआ है । हार्दिक बधाई सर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on Saturday

आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। बहुत खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

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"जी आदरणीय गजेंद्र जी बहुत बहुत शुक्रिया जी।"
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