परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 180 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र जी की ग़ज़ल से लिया गया है।
तरही मिसरा है:
“वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे धीरे”
बह्र है फ़ऊलुन्x4 अर्थात् 122 122 122 122
रदीफ़ है ‘धीरे धीरे’’ और क़ाफ़िया है ‘’अर’’
क़ाफ़िया के कुछ उदाहरण हैं असर, गुजर, कर, मर, मुकर, बशर, घर, पर, सफ़र, मगर, सर, भर, आदि
उदाहरण के रूप में, मूल ग़ज़ल यथावत दी जा रही है।
मूल ग़ज़ल यह है:
“बनाया है मैं ने ये घर धीरे धीरे
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे धीरे
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला
कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे धीरे
जहाँ आप पहुँचे छलांगें लगा कर
वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे धीरे
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी
उठाता गया यूँ ही सर धीरे धीरे
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया
गया दर्द से घाव भर धीरे धीरे”
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 जून दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 जून दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
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मंच संचालक
तिलक राज कपूर
(वरिष्ठ सदस्य)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय रिचा यादव जी, ग़ज़ल अच्छी हुई है। बधाई स्वीकार करें।
तू पहले नदी में उतर धीरे-धीरे
कटेगा तेरा फिर सफ़र धीरे-धीरे।१।
*
बहा ले न जाए सँभल तेज़ धारा
जहाँ उठ रहा है भँवर धीरे-धीरे।२।
*
बना ले भले तू ये बुत हड़बड़ी में
मगर रूह देगी असर धीरे-धीरे।३।
*
सजावट से रौनक बढ़ेगी भले ही
बनेगा मकाँ से ये घर धीरे धीरे।४।
*
दिया काट तुमने उसे एक पल में
बढ़ा छाँव को जो शज़र धीरे-धीरे।५।
*
सलाखें हैं छूटी उड़ा चल खला को
मगर खोल अपने ये पर धीरे धीरे।६।
*
उठी पीर तो थी सदी से भी पहले
मगर घाव आया उभर धीरे धीरे।७।
*
पिघलता है भीतर से पाषाण पर्वत
चले जब नदी नीर भर धीरे धीरे।८।
*
भले ही मनुज हैं मगर देव जैसा
हमें भी तो होना अमर धीरे धीर।९।
*
यहाँ हर तरफ है छिपी दुश्मनी बस
करो अपनी चौकस नज़र धीरे धीरे।१०।
*
गिरह-
भले स्वर्ग देवों का कहते ठिकाना
"वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे धीरे”
***
मौलिक/अप्रकाशित
बहा ले न जाए सँभल तेज़ धारा
जहाँ उठ रहा है भँवर धीरे-धीरे।२।
आपकी ही की बात और सरल शब्दों में
तुझे ले न जाये उधर तुझे तेज़ धारा
जिधर उठ रहे हैं, भँवर धीरे धीरे।२।
सजावट से रौनक बढ़ेगी भले ही (पर)
बनेगा मकाँ से ये घर धीरे धीरे।४।
*
दिया काट तुमने उसे एक पल में
बढ़ा छाँव का जो शज़र धीरे-धीरे।५। अच्छा शेर हुआ
*
सलाखें हैं छूटी उड़ा चल खला को (‘कफ़स से निकलकर, उड़ा चल खला को’ पर सोचें)
मगर खोल अपने ये पर धीरे धीरे।६। (‘मगर खोलना अपने पर धीरे धीरे’ पर सोचें)
रदीफ़, क़ाफ़िया और बह्र का पालन कड़ाई से हुआ, अच्छी ग़ज़ल हुई।
मुझसे टाईप करने में ग़लती हो गयी थी, दो बार तुझे आ गया था।
तुझे ले न जाये उधर तेज़ धारा
जिधर उठ रहे हैं, भँवर धीरे धीरे।२।
आ. भाई तिलकराज जी सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, प्रशंसा, मार्गदर्शन और स्नेह के लिए हार्दिक आभार।
आपके द्वारा सुझाए बदलाव अति उत्तम और सिरोधार्य हैं। लेकिन दूसरे शेर के संदर्भ में और अधिक मार्गदर्शन चाहता हूँ।
प्रथमतया मैंने भी आपका सुझाया हुआ ही लिखा था किनतु बाद में विचार आया कि क्यों न इसमें सचेत करने का भाव रखा जाय। इस कारण इस रूप में उसे ढाला। लेकिन लगता है सचेत करने के भाव को मैं ठीक प्रकार से कह नहीं पाया। उसे यहाँ पुनः सुधारने का प्रयास किया है देखिएगा-
सभँलना बहा ले न ये तेज धारा
जिधर उठ रहे हैं भँवर धीरे धीरे।।
मैं इसमें सचेत करने का भाव ही रखना चाह रहा हूँ ।वह कैसे रखूँ मार्गदर्शन करें।
सादर...
सजावट से रौनक बढ़ेगी भले ही
बनेगा मकाँ से ये घर धीरे धीरे// अच्छा शेर है!
अच्छे ख़याल बाँधे है आदरणीय लक्ष्मण धामी जी। लगभग सभी शेर अच्छी कहन में हैं। आदरणीय तिलक राज साहब के उपयोगी सुझावों से लाभ लेकर ग़ज़ल को और निखार लें। बहुत बधाई!
आ. भाई गजेन्द्र जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ग़ज़ल अच्छी हुई है। बधाई स्वीकार करें।
#मौलिक एवं अप्रकाशित
निखर जायेंगे कम हुनर धीरे-धीरे
अच्छा कहा अजेय जी
अच्छे मिसरे बाँधे हैं अजय जी। परन्तु थोड़ा सा और तराशा जाए तो सभी अशआर और ज़ियादा चमकने लगेंगे। आपकी कहन का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, लहज़ा भी अच्छा है।बधाई स्वीकारें।
नहीं ऐसी बातें कही जाती इकदम
अहद से तू अपने मुकर धीरे-धीरे
जैसा कि प्रथम पंक्ति से ध्वनित हो रहा है, यह शेर परिस्थिति विशेष में अहद् से मुकरने पर समझाईश का है लेकिन दूसरी पंक्ति मुकरने को प्रेरित करती हुई है। यह केवल मार्गदर्शन तक सीमित हो सकता है अगर यूँ कहा जाए कि
अहद् से मुकरना नहीं ठीक फिर भी
अगर है ज़रूरी मुकर धीरे धीरे।
सफ़र रूह का पास मंज़िल के है
हुआ मुख़्तलिफ़ मुख़्तसर धीरे-धीरे। एक बार फिरे से देखें जिससे कहन स्पष्ट हो सके।
अंतिम दो शेर में बात अच्छी है मगर अभी और समय चाहते हैं।
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