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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-102 (विषय: आरंभ)

आदरणीय साथियो,

सादर नमन।
.
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-102 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। इस बार का विषय 'आरंभ', तो आइए इस विषय के किसी भी पहलू को कलमबंद करके एक प्रभावोत्पादक लघुकथा रचकर इस गोष्ठी को सफल बनाएँ।  
:  
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-102
"विषय: 'आरंभ
अवधि : 29-09-2023 से 30-09-2023 
.
अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाए इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है। देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
.    
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.
.
मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)

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स्वागतम

'मतलब' और 'मतलबी'! (लघुकथा): 


"ज़रा ग़ौर फ़रमाइयेगा जनाब, शब्द 'आरम्भ' में 'म' है और 'समापन' में 'म' है! 'मध्य', 'मध्यांतर' में भी 'म' है, तो 'विराम' में भी 'म' है!"
"बिल्कुल साहब! आधे 'म' से ' 'म' और 'मा' तक...ग़ज़ब की बात पकड़ी है आपने तो!"
"तो फ़िर 'आत्मा' में भी 'मा' है। जीवन के आरम्भ से समापन तक 'म' है, 'माँ' है!
"गड़बड़ तो 'अहं' और 'मैं' ने की है साहब! वरना हर धर्म के मुख्य शब्दों में 'म' है, 'आदमी' और 'आदमीयत' और 'मानवता' में 'म' है, है न!"


(मौलिक व अप्रकाशित)

संक्षिप्त और गूढ़। बहुत अच्छी रचना हुई है आदरणीय । सार सबका एक है पर मैं ने गड़बड़ कर दी । वाह

रचना पटल पर त्वरित समय देकर प्रोत्साहक प्रतिक्रिया हेतु शुक्रिया आदरणीय अजय गुप्त 'अजेय' जी।

अच्छी रचना हुई है जनाब शहज़ाद उस्मानी जी। बधाई स्वीकारें

हार्दिक धन्यवाद आदरणीया कल्पना भट्ट जी।

आदरणीय उस्मानी जी, 'म' ने कोई गड़बड़ी नहीं की। वह तो मात्राओं की कारस्तानी है, साहिब। बधाइयाँ। 

रचना पटल पर उपस्थिति हेतु धन्यवाद आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। अचानक 'म' सूझा और म, मा , माँ आदि के संग  संकेतों में कुछ कहना चाहा। रचना के संबंध में भी मार्गदर्शन चाहूँगा।

आरंभ है प्रचंड

=========

कस्बे के रेलवे पार्क में रोज घूमने आने वाले समूह के सदस्यों के मध्य वार्तालाप चल रहा है। बिना इस भूमिका के कि किसने क्या कहा और किसने क्या उत्तर दिया, हम भी उनकी बातों को जानते हैं।

"ये जो बुलडोजर चल रहें हैं ना, एक दम ज़रूरी है और ये तो अगर पहले हो जाता तो सब क़ाबू में रहते।"

"क्या बात कर रहे हो जनाब, ये कौन सा तरीका है, आखिर हम किसी तानाशाही या राजशाही में तो नहीं रह रहे। न्याय व्यवस्था भी तो किसी चीज़ का नाम है कि नहीं।"

"छोड़ो यार! किसे नहीं पता यहाँ न्याय व्यवस्था की असलियत। मुझे नहीं पता या तुम्हें नहीं पता। यहाँ सारा न्याय, सज़ा और क़ानून सिर्फ़ गरीब या शरीफ आदमी के लिए हैं। बदमाश का इलाज तो अभी होना शुरू हुआ है और जनता उससे खुश है।"

"जनता की खुशी के कारण बदलते देर थोड़े ही लगती है। जनता को तमाशा चाहिए। और ये सब न्याय-व्याय कुछ नहीं है। सबको पता है एक ही मज़हब के घर गिराए जा रहें हैं। ये सब समाज को बाँटने कि साज़िश है। राजनीति है कोरी, और कुछ नहीं।"

"छोड़ो न बाउजी, आप कि कहाँ की बात ले आए बीच में। मैं आपको सौ उदाहरण दे सकता हूँ कि कोई धर्म-मज़हब बीच में नहीं है। आदमी को केवल एक चीज़ चुभती है और वो है आर्थिक नुकसान। और वहीं प्रहार हो रहा है।"

"आप कि बातें अपनी जगह जायज़ हैं, मेरी बातें अपनी जगह। पर मेरी समस्या और भय ये है कि ये शुरुआत न हो।"

"मतलब"

"मतलब!! इतना बड़ा देश। कितने धर्म। कितनी पार्टियाँ। कितनी भाषाएं। कितनी जातियाँ। कितने वर्ग। बुलडोजर कि बुद्धि थोड़े ही ना है। उसे तो किसी पार्टी के किसी धर्म कि किसी जाति का व्यक्ति चला रहा है और उसे किसी पार्टी के किसी धर्म कि किसी जाति के व्यक्ति से ही आदेश प्राप्त होने हैं। और हम सब के अपने-अपने ठिये, अपने अपने आदर्श, अपने-अपने खेमे, अपने अपने झंडे। आज नहीं तो कल, क्या पता कौन किस ओर खड़ा हो।"

सभी सहम से गए। सभी मौन थे। और दूर किसी ने एफ-एम चलाया तो उसपर गाना चल रहा था "आरंभ है प्रचंड"।

#मौलिक एवं अप्रकाशित

आदाब। आपकी पैनी दृष्टि से रचित यह कड़वे सच वाली रचना वाकई कुछ भिन्नता लिये हुए है। हार्दिक बधाई जनाब अजय कुमार 'अजेय' जी। लघुकथा में लघुता, लघु संवाद और सांकेतिकता का बड़ा महत्व होता है। कुछ संवाद बड़े हो गये हैं। जो कम शब्दों में सांकेतिकता के साथ रचे जा सकते हैं। मतलब यह कि कसावट के साथ और आधिक बोलचाल की सहज शैली में आप की लेखनी बेहतर कह सकती है, ऐसा लगा मझे।  अंत में एफएम की जगह रेडियो कहना काफी था या अंत बिना शीर्षक लाये कुछ बेहतर पंच से किया जा सकता है मेरे विचार से। सादर।

बहुत आभार इस बारीक़ विश्लेषण के लिए आदरणीय उस्मानी जी। आपकी बातों पर ग़ौर करके अवश्य इन्हें रचना में समाहित करूँगा।

सुरा- सार
"मालखाने की शराब चूहे पी गए....।" सुनकर बाबा चौंके।
"फिर से? " उन्होंने मुन्नी से सवाल किया।
"यह खबर पुरानी है, बाबा!  भूमिका में दी गई है। नई दूसरी है।" मुन्नी अखबार का पन्ना पलटती हुई बोली।
"तो जल्दी बोल न। " बाबा बेताबी से बोले।
"... पर अबकी बार अंदर के चूहे  पकड़े गए। सी आई डी ने छापा मारा। शराब के कनस्तर बिक रहे थे। खरीदने वाले भी सी आई डी के लोग, छापा मारनेवाले भी सी आई डी वाले ही। स्थानीय लोग मददगार रहे। थानेवालों की भद्द पिट गई। बेचारे अपने ही थाने में गिरफ्तार हैं। लोग फोटो निकालना चाहते हैं। पर वे सब तो मुँह ढांपे हुए हैं। " मुन्नी ने खबर खत्म की।
"अथ श्री  सुरायै (सुरा के लिए) नमः।" बाबा ने चुटकी ली।

"मौलिक और अप्रकाशित"

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