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२१२/२१२/२१२/२१२
*
राह में शूल अब  तो  बिछाने लगे
हाथ दुश्मन से साथी मिलाने लगे।१।
*
जो अघाते न थे कह सहारे हमी
गाल वो भी दुखों में बजाने लगे।२।
*
दुश्मनों की जरूरत हमें अब कहाँ
जब स्वयं को स्वयं ही मिटाने लगे।३।
*
हाथ सबका ही तोड़े यहाँ फूल को
सोच माली  भी  काँटे  उगाने लगे।४।
*
बात उसको बता कर्म की साथिया
सेज सपनों की जो भी सजाने लगे।५।
*
वोट पाने की खातिर कभी रोये जो
दुख हमारे  ही  उन  को बहाने लगे।६।
*
था गरीबी का आलम भले ही वहाँ
गाँव फिर भी  नगर  से सुहाने लगे।६।
*
अन्न खेतों  का  ऐसे  रुआँसा हुआ
सूखी छाती जो बादल दिखाने लगे।७।
##
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 30, 2022 at 6:57pm

आ. भाई जैफ जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए धन्यवाद।

Comment by Zaif on November 30, 2022 at 6:31pm

अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद मुसाफिर सर, सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 30, 2022 at 3:51pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।

Comment by Sushil Sarna on November 30, 2022 at 2:10pm
वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत सुंदर प्रस्तुति है सर जी ।हार्दिक बधाई सर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 30, 2022 at 8:14am

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन के लिए आभार।

Comment by Samar kabeer on November 29, 2022 at 6:32pm

जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

अरकान आपने ग़लत लिख दिए हैं उन्हें:-

212 212 212 212 कर लें ।

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