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ग़ज़ल

221 2121 1221 212

आँखों को रतजगे मिले हैं जल भराव भी
उल्फ़त में दुख मिले तो मिले गहरे भाव भी

कानों को आहटें सुने बर्षों गुज़र गये
बुझने लगे हैं आँखों के जलते अलाव भी

कुछ इसलिये खमोशियाँ ये रास आ गईं
दुनिया न जान ले कहीं अंतस के घाव भी

गर डूबना नसीब है तो फ़िक़्र क्यों करूँ
दरिया में अब उतार दी है टूटी नाव भी

वो साथ दे सका न बहुत देर तक मेरा
इक तो हवा ख़िलाफ़ थी उसपे बहाव भी

वो चाँद है,वो चाँद भला किसका हो सका
बे-वज़्ह क्यों बढ़ा रहे पीड़ा तनाव भी

सुधबुध गवाँ के रात में उसको निहारना
अच्छा नहीं है चाँद से 'ब्रज' ये लगाव भी

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 2, 2022 at 7:22pm

आपके शब्दों से अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हुआ आदरणीय भसीन जी...आपकी सलाह सर्वथा उचित है।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on November 2, 2022 at 5:23pm

नहीं नहीं जनाब-ए-'आली, ऐसी बात नहीं है। बस इसी तरह इस्लाह करने वालों से और अपने शोध और अध्ययन से एक एक लफ़्ज़ का वज़्न पता चलता जाता है। किसी लफ़्ज़ के वज़्न या इस्तेमाल में शक हो तो rekhta dictionary से चैक कीजिये। आपकी शायरी में जो उर्दू और हिंदी का मिश्रण है उसके कारण एक अलग रस है इसमें, एक अनूठा अंदाज़ है आपका, इसलिए उर्दू के अलफ़ाज़ को इस्तेमाल करने से गुरेज़ करना न शुरू कर दीजियेगा, शुभकामनाएँ

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 2, 2022 at 12:50pm

हाहाहा... बहुत मुश्किल है...उर्दू,अरबी,फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल हम जैसों के लिए...बेहतर होगा हम ज्यादातर हिंदी शब्दों का ही उपयोग करें।धन्यवाद आदरणीय भसीन साहब...आपका सुझाव अच्छा है।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on November 2, 2022 at 9:37am

आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' साहिब, सादर अभिवादन। जनाब 'ख़्वाह-मख़ाह' को 21121 के वज़्न पर लेना पड़ेगा।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 2, 2022 at 8:03am

रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार आदरणीय भसीन साहब...उर्दू,अरबी,फ़ारसी शब्द में गलतियाँ हो जातीं हैं सामान्य बोलचाल के कारण...वैसे इसकी जगह "खामखा" रखा जा सकता है।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on November 1, 2022 at 11:04pm

आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' साहिब, बहुत ख़ूब ग़ज़ल कही है आपने, इस पर आपको दाद और मुबारकबाद पेश करता हूँ। जनाब छटे शे'र के सानी में 'बे-वजह' दरअसल 'बे-वज्ह' है, 221 के वज़्न पर होना चाहिये। इस मिस्रे को यूँ कर सकते हैं: बे-वज्ह क्यों बढ़ा रहे...

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