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चन्द्रलोक की सारी सुषमा, आज लुप्त हो जाती है।
लोल लहर की सुरम्य आभा, कचरों में खो जाती है
चाँदी जैसी चंचल लहरें, अब कब पुलकित होती हैं
देख दुर्दशा माँ गंगा की, हरपल आँखे रोती हैं।

बस कागज पर निर्मल होती, मीठी-मीठी बातों से।
कल्पनीय चपला जस शोभित, होती हैं सौगातों से।
व्यथित सदा ही गंगा होती, मानव के संतापों से।
फिर कैसे वह मुक्त करेगी, उसे भयंकर पापों से।

एक समय था गंगा लहरें, उज्ज्वल रूप दिखाती थी।
धवल मनोहर रात चाँदनी, गंगा में दिख जाती थी।
पावन सलिला मोक्ष दायिनी, हमें बहुत हर्षाती थी।
नभ अवनी से मिलकर गंगा, सुषमा को झलकाती थी।

आज प्रतिज्ञा हम करते हैं, गंगा स्वच्छ बनाएँगे।
जीव जगत के हित में सारे, मिलकर इसे बचायेंगे
कूड़ा कचरा औ मलबा हम, हरगिज नहीं बहाएँगे।
सुख हित साबुन तेल लगा कर, उसमें नहीं नहाएँगे।

सुक पिक मोर रोर कर तट पर, सुंदर गीत सुनाएँगे।
स्वच्छ धार में क्रीड़ा करके, सबका जी बहलाएँगे।
गंग दशहरा तभी सफल है, जब सब आगे आएँगे।
पुण्य भगीरथ के सपनों को, दिल से सभी सजाएँगे।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 5, 2020 at 11:13am

आ. भाई छोटेलाल जी, सादर अभिवादन । अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on June 4, 2020 at 7:26am

आदरणीय सुशील सरना जी सादर अभिवादन आपके उत्साहवर्धन से लेखनी सफल हुई आपका बहुत बहुत आभार

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on June 4, 2020 at 7:25am

परमादरणीय समर साहब जी सादर अभिवादन आपके उत्साहवर्धन से मन प्रसन्न हुआ आपका दिल से आभार

Comment by Sushil Sarna on June 3, 2020 at 9:26pm

वाह बहुत सुंदर आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी ... माँ गंगा को समर्पित एक अतुंलनीय सृजन। शब्द सौंदर्य देखते ही बनता है। इस उत्तम सृजन के लिए दिल से बधाई।

Comment by Samar kabeer on June 2, 2020 at 3:18pm

जनाब डॉ. छोटेलाल सिंह जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

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