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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७१

2212 1212 2212 1212

ख़ुशियों से क्या मिले मज़ा, ग़म ज़िंदगी में गर न हो
शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो

लुत्फ़े वफ़ा भी दे अगर बेदाद मुख़्तसर न हो

इक शाम ऐसी तो बता जिसके लिए सहर न हो

हालात जीने के गराँ भी हों तो क्या बुराई है
मजनूँ मिले कहाँ अगर सहराओं में बसर न हो

ऐसी रविश तो ढूँढिए गिर्यावरी ए आशिक़ी
तकलीफ़ देह भी न हो, नाला भी बेअसर न हो

ख़ुशियों के मोल बढ़ते हैं रंजो अलम के क़ुर्ब से
तादाद की बिसात क्या आगे में गर शिफ़र न हो

कैसी है बद ख़्याली-ए-अहले ज़माँ, कहते फिरें  

करते हैं इश्क़ लोग वो जिनमें कोई हुनर न हो

दुनिया है ख़्वाब गाह गर, बालीं परस्त मैं रहूँ  
सोने दे राज़, ख़ुद की अब ताज़िंदगी ख़बर न हो

~ राज़ नवादवी

“मौलिक एवं अप्रकाशित”

बेदाद- अनीति, अत्याचार; मुख़्तसर- संक्षिप्त; रविश- पद्धति, आचार-विचार; गिर्यावरी ए आशिक़ी- प्रेम में आँसू बहाना; नाला- आर्तनाद, पुकार; क़ुर्ब- सामीप्य; शिफ़र- शून्य; अहले ज़माँ- ज़माने के लोग; बालीं परस्त- पलंग पे पड़ा रहने वाला, आराम तलब

 

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Comment by राज़ नवादवी on November 26, 2018 at 2:31am

आदरणीय राहुल डांगी जी, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का ह्रदय से आभार. सादर. 

Comment by Rahul Dangi Panchal on November 25, 2018 at 11:57pm

बहुत खूब हार्दिक बधाई आदरणीय राज नवादवी जी

Comment by राज़ नवादवी on November 24, 2018 at 9:20am

आदरणीय अजय तिवारी साहब, आदाब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का ममनून हूँ. सादर. 

Comment by Ajay Tiwari on November 22, 2018 at 7:49pm

आदरणीय राज़ साहब, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.

Comment by राज़ नवादवी on November 21, 2018 at 5:43pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 


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Comment by rajesh kumari on November 21, 2018 at 11:21am

वाह्ह्ह्ह बेहतरीन ग़ज़ल हुई है जनाब राज़ नवादवी साहब शेर दर शेर दाद कुबूलें 

Comment by राज़ नवादवी on November 20, 2018 at 11:42am

जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब, बदलाव के बाद रेपोस्ट करता हूँ. सादर 

Comment by Samar kabeer on November 20, 2018 at 11:28am

' शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो'

ये बहतर है ,बधाई ।

Comment by राज़ नवादवी on November 20, 2018 at 12:54am

जी जनाब समर साहब, आदाब. आपके कहे अनुसार नए उला मिसरे के साथ मतला यूँ है, कृपया इस्लाह दें:

ख़ुशियों से क्या मिले मज़ा, ग़म ज़िंदगी में गर न हो
शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो

मैंने 'शामे ख़ुनुक' भी सोचा था, पर ऐबे तनाफुर का मसला आ गया.

सादर

Comment by Samar kabeer on November 19, 2018 at 10:02pm

कैसे उड़ेगा वो भला बालों पे जिसके पर न हो'

बात जमी नहीं,ऊला मिसरे पर दूसरा मिसरा कहें,क़ाफ़िया बदल कर ।

 

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