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मांगो वत्स क्या मांगते हो

रात स्वप्न में, प्रभु थे खड़े
बोले मांगो वत्स क्या मांगते हो
जमीं चाहते हो या आस्मां चाहते हो

बड़ी गाडी बड़ा घर नोटों की गट्ठर
या सत्ता सुख कुर्सी से हो कर
जो चाहो अभी दे दूँ
एक नयी ज़िन्दगी दे दूँ

मैंने माँगा तो क्या माँगा
एक बेंच पुरानीं सी
वो पीछे वाली मेरे स्कूल की

चाहिए मुझे
वो बचपन के ज़माने
दोस्त पुराने
मदन के डोसे पे टूटना
चेतन का वो टिफिन लूटना
अपना टिफिन बचाने में
टीचर क्लास सभी को भूले
हम मस्त थे खाना खाने में

मुझे वो होली चाहिए
ओ एन जी सी कॉलोनी चाहिए
वो ठंडाई वाली ट्रक
वो लड़कपन की सनक
एक दूसरे का फाड़ते हम कुरता
अनिल मेरे दोस्त
ये वक़्त क्यों नहीं मुड़ता

गुरप्रीत के घर वाला रास्ता
मेरा टूयूशन मेरा बस्ता
रैम्बो संग एस्सेल्वर्ल्ड में भटकना
कम्युनिटी सेंटर आम का बगीचा
आम जामुन सब तोड़ चखना
मुझे चाहिए बचपन की
ये सारी घटना

बाउंड्री से थोड़ी ही दूर
लपका था रणदीप का कैच
वो छक्का चाहिए मुझे
जिससे जीता था मैंने मैच
मुझे अंडर आर्म के
वो लगातार नौ डक भी चलेंगे
चाहिए मुझे मेरी फुटबॉल
मेरे फाउल भी

मुझे मेरी बी टाइप की बालकनी
मेरा सीक्रेट स्पॉट अमरुद वाला
लंच टाइम में फिर माँ टिफन लाए
बादाम के पेड़ो के निचे बैठ फिर हम खाए
मुझे स्कूल के बाहर
बेर बेचती वो मौसी चाहिए
मुझे जिंदगी ऐसी चाहिए

मुझे 15 अगस्त के वो लड्डू चाहिए
चाहिए मुझे कॉलोनी की परेड
26 जनवरी वाली

मुझे वो शॉट पुट का गोला
जिसने मूझे ब्रोंज मैडल दिलाया था
मुझे चाहिए वो कबड्डी टीम
जिसका मै कैप्टन था
ब्रोंज से अब की सिल्वर हो आया था


जो मुह में पानी लाई चाहिए

मुझे वो मेरी मिठाई चाहिए
छोटी सी जब हुई थी बहना
माँ संग चुप सोई थी बहना
मेरा ध्यान भटकाने वाली
मुझे वो मेरी मिठाई चाहिए

मुझे नानी के हाथ के
बेसन लड्डू लौकी की बर्फी चाहिए
और जो दादा लाते थे
वो पारले जी

मुझे चाहिए मेरी पुरानीं डायरी
जिसमे इस कवि की
दसवी तक की सारी कविताएं भरी
जो शिफ्ट करने में खो गई
मुझे मेरी डायरी ला दो

आखिर में मुझे चाहिए
वो स्वेटर जो माँ ने बुना था
तितली वाला
वो टोबो साइकल
जो पापा कलकत्ता से लाए थे

खेत में लाऊँ तो ट्रेक्टर
सड़क दौड़ाऊँ तो मोटर
मुझे कोई सिंहासन नहीं
मुझे दिला दो मेरी टोबो साइकल

: शशिप्रकाश सैनी

 मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by shashiprakash saini on July 25, 2013 at 8:19am

सौरभ जी , प्राची जी , आशुतोष जी
मेरे भाव आप तक पहुंचे आप ने कविता को सराहा
दिल गद गद हो गया
हार्दिक आभार

Comment by shashiprakash saini on July 25, 2013 at 8:16am

सराहना हेतु आभार
श्याम जी , अन्नपूर्णा जी , किशन जी

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 25, 2013 at 6:32am

मुझे स्कूल के बाहर
बेर बेचती वो मौसी चाहिए..और तो तमाम बातें मन को छू गयी पर मौसी का जवाब नहीं ..बेर वाली मौसी ये लगभग हर बचपन से जुडी हैं ..आपने सचमुच खुदा से जो कुछ भी माँगा उससे ज्यादा बेहतर कुछ माँगा भी नहीं जा सकता है ..जितनी तारीफ़ की जाए कम है ..सादर बधाई स्वीकारें 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 24, 2013 at 11:55am

अपने पूरे बचपन को समेट लिया आपने अभिव्यक्ति में साथ ही हमें भी हमारे बचपन की सैर करा दी.

हार्दिक शुभकामनाएँ इस मासूम अभिव्यक्ति पर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 24, 2013 at 9:59am

संस्मरण को शब्द मिले, अच्छा लगा.

शुभकामनाएँ

Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 6:52pm

kya khub manga hai aapne , adarniy shashi ji . dil se dua hai aapko vo sab mil jaye jo apne manga hai .

Comment by Shyam Narain Verma on July 23, 2013 at 4:03pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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