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अँधा कानून 

कुकर्मों का हो गया हिसाब 
फाँसी पर लटके मियां 'कसाव'
खुद भी मरे बेगुनाहों को मारा 
जिंदगी अपनीं  की बर्वाद 
पाप करके कोई बच नहीं सकता 
कोई जख्म किसी के भर नहीं सकता 
आखरी लम्हों में गुनहगारों को भी 
रब्ब आता है याद 
कानून भी अपना इतना लचीला 
करोड़ों का खज़ाना कर दिया ढीला 
इक आतंकी को सज़ा  देनें के लिए 
लगा दिए इतने साल  

दीपक कुल्लुवी 
21-11-12

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Comment by Yogi Saraswat on November 24, 2012 at 11:03am

रब्ब आता है याद 
कानून भी अपना इतना लचीला 
करोड़ों का खज़ाना कर दिया ढीला 
इक आतंकी को सज़ा  देनें के लिए 
लगा दिए इतने साल 

निस्चित रूप से बुरा लगता है दीपक जी , जब न्याय मिलने में देरी होती है और ऐसे दुर्दांत आतंकवादियों को पाला जाता है ! लेकिन कानून की अपनी रफ्तार होती है ! बहुत सामयिक और सटीक शब्द लिखे हैं आपने

Comment by akhilesh mishra on November 22, 2012 at 1:07pm

सुंदर अभिव्यक्ति. बधाई स्वीकारे ।

Comment by PHOOL SINGH on November 22, 2012 at 12:08pm

शर्मा जी नमस्कार...

बुराई का अंत बुरा ही होता है....बहुत ही सुंदर चरित्रात को व्यक्त करती रचना.

फूल सिंह

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