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व्यंग्य - अनजाने चेहरों की दोस्ती

यह बात अधिकतर कही जाती है कि एक सच्चा दोस्त, सैकड़ों-हजारों राह चलते दोस्तों के बराबर होता है। यह उक्ति, न जाने कितने बरसों से हम सब के दिलो-दिमाग में छाई हुई है। दोस्ती की मिसाल के कई किस्से वैसे प्रचलित हैं, चाहे वह फिल्म ‘शोले’ के जय-वीरू हों या फिर धरम-वीर। साथ ही भगवान कृष्ण-सुदामा की दोस्ती की प्रगाढ़ता जग जाहिर है। ऐसी दोस्ती की कहानियां धर्म ग्रंथों में कई मिल जाएंगी। यह भी कहा जाता है कि कलयुग में जितना हो जाए, बहुत कम है। कुछ भी हो जाए तो बस ‘कलयुगी’ उदाहरण दिया जाता है। कलयुग में बहुत कुछ हुआ है, जो कभी सुनने में नहीं आया है। रिश्तों को कलंकित करना, जैसे कलयुग के हिस्से में ही है, कभी कोई कलयुगी बेटा हो जाता है तो कोई कलयुगी बाप बन जाता है। यह पदवी उन्हें ऐसे ही नहीं मिलता, इसके एवज में वे घृणित कार्य को शिरोधार्य करते हैं। कलयुग की पटकथा पर कई फिल्में बनाई गई हैं, अब तो ‘कलयुगी तकनीकी दोस्ती’ पर भी कोई फिल्म बनाया जाना चाहिए। कुछ नहीं तो एकाध पुस्तक लिखी जानी चाहिए, जिसका विमोचन भी फेसबुकिया दोस्ती के पैरोकार करे तो ज्यादा बेहतर रहेगा।
तकनीकी प्रणाली में कलयुग की एक नई दोस्ती की कहानी गढ़ी जा रही है, वो है, अनजाने चेहरों से दोस्ती। एक दशक पहले एक फिल्म आई थी, ‘सिर्फ तुम’। इस फिल्म में जिस तरह बिना चेहरा देखे ‘प्यार’ हो जाता है और शादी की चाहत जाग जाती है, कुछ वैसा ही हाल ‘अनूठी दोस्ती की कहानी’ की है। दरअसल, आज दोस्तों की संख्या बढ़ाने की अजीब जद्दोजहद चल रही है, जिसमें कोई पीछे नहीं रहना चाहता, भले ही वे उस दोस्त के चेहरे से वाकिफ न हों। जो चेहरे दिख जाए, वही दोस्ती की फेहरिस्त में शामिल हो जाता है। ये अलग बात है, वह चेहरे पर चेहरा लगाया हो। इससे बात कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह गरीब है कि अमीर। ऐसा लगता है कि जैसे ‘चेहरा पहचान’ स्पर्धा की धूम मची है। जिन नाम को आपने सुना तक नहीं है, उनका यहां चेहरा का आभामंडल सहज देखा जा सकता है।
दोस्ती का कीड़ा ने भी मुझे भी काटा है, लिहाजा मैं भी ‘फेसबुकिया बीमारी’ की चपेट में हूं और देश भर में दोस्त बनाने में जुटा हूं। मैं कईयों को नहीं जानता, कभी नाम तक नहीं सुना। मगर धन्य है, हमारी फेसबुकिया पद्धति। जिसके आने के बाद सब आसान हो गया है, मिनटों-मिनटों में दोस्त टपक आते हैं, बटन दबाए नहीं, सामने नजर आ जाते हैं। चेहरा दिखते ही बस यही आवाज सुनाई देती है, मुझे भी अपनी ‘दोस्ती की किताब’ में शामिल कर लो। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम एक हैं, दोस्ती की कहानी भी कुछ वैसी है, क्योंकि जिस तरह देश में कहीं भी रहने व जाने का अधिकार है, दोस्त बनाने के लिए भी कोई रोक-टोक नहीं है। हम सब जानते हैं कि आसपास में कितने दोस्त बना पाते हैं, लेकिन ‘फेसबुकिया’ तकनीक ने तो दोस्तों की भरभार कर दी है। मन में यह बात सहसा आ जाती है कि दोस्ती का समुद्र सामने खड़ा है, जहां से जितना दोस्त चाहो, ले सकते हो। जैसे हम समुद्र के पानी को जितना भी लें, खत्म नहीं होता, वैसा ही दोस्त बनाने की कतार कहीं कटती नहीं। कोई न कोई कतार में दिखाई देता ही रहता है। दोस्तों की फेहरिस्त इतनी अधिक रहती है कि चेहरा तो दूर, नाम तक याद नहीं रहता, हैं न लाजवाब दोस्ती। दोस्ती की ऐसी मिसालें देखने को नहीं मिलेंगी, आपको ही पता नहीं कि आपके दोस्त कहां के हैं और करते क्या हैं ?
इस दोस्ती की कहानी यहीं नहीं रूकती, जैसे हर कहीं दोस्तों में गु्रपबाजी होती है, वैसे हालात यहां भी हैं। गुटबाजी किए व उसके हिस्से में आए बिना हमें लगता है, जैसे कुछ हासिल ही नहीं हुआ। पहले हमें विदेशी कंपनी ने कई तराजू में तौला और बांटा, अब फेसबुकिया बीमारी की बदौलत हम ‘ग्रुप की लड़ाई’ में शामिल हो रहे हैं। जहां देखो हर किसी का अपना ग्रुप है। अब समझ में नहीं आता कि किसके ग्रुप में रहें। कई तो ग्रुप बिना ही रहना चाहते हैं, लेकिन वे मानें, तब ना। जो अनजाने चेहरों से दोस्ती में माहिर हैं। चिकने चेहरे देखकर तो लार लपकाने वालों की कमी नहीं है और कई अपना शगल ही बना लिए हैं, चेहरे पर चेहरा लगाना। अब इसमें कोई क्या कर सकता है, जो अपना चेहरा ही दुनिया को दिखाना नहीं चाहता।
अब ऐसे में कौन बताए कि सच्चा कौन है और झूठा कौन ?, क्योंकि दोस्ती का पैमाना तो सच्चाई व ईमानदारी है, मगर ये तो खुले बाजार में मिलती नहीं, जो ‘फेसबुकिया बीमारी’ लगने के बाद आसानी से मिल जाती है। आज तो इस बीमारी की खुमारी छाई है, अनजाने चेहरों की दोस्ती की ललक हर कहीं नजर आ रही है। दम मार-मार कर बस यही कोशिशें जारी हैं कि कैसे भी हो, खुद को अनजाने चेहरों तक पहुंचाना ही है, भले ही वे याद रखें या न रखें।
मैं भी इस फेहरिस्त में शामिल हूं, क्योंकि अपना चेहरा तो कोई पहचानता नहीं, कोई देख ले तो फिर सिर फिरा ले। इसलिए यह शार्टकट राह मैंने भी चुन ली। ये तो सभी जानते हैं कि शार्टकट से कोई सफल नहीं होता। लिहाजा देखते हैं, ये दोस्ती कब तक चलेगी, हालांकि मैं तो यही कहूंगा, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...


राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं।

जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा . - 098934-94714

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