फिर एक किनारा......? Copyright ©
फिर एक किनारा......?
इस ओर से उस ओर को जाने वाला एक खिवैया..
दो किनारों के बीच आवाजाही ही तो है जो समझ नहीं आती है..
रेत पर मेरे स्वागत को तत्पर..
बलुआ मिटटी और सीपियों से बनी तुम्हारी रंगोली..
मेरे आने से पहले ही बड़ी लहर उसे निगल जाती है..
सखी , रेत पर बिखरे पड़े तुम्हारे स्वागत में भी..
है कुछ भीना सा खुशबू भरा अहसास..
विजित सा कोई भाव समाया है उन सूनी आँखों में..
हाँ , एक बार फिर सजाना तुम उस कनारे को..
अबके रेत नहीं कुछ ठोस ढूंढ कर..
हाँ , फिर आऊंगा मैं नयी सी उमंग को लेकर..
फिर आयेगी एक बड़ी सी लहर..
शायद उफान कभी हो जोर पर..
ठोस भले हो पर रेत वही थी..
हर बार की तरह फिर बहेगी रंगोली..
बेबस ताकते रह जाने के सिवा तुम कर भी क्या सकती हो..
गीली रेत के घरौंदे कच्चे जो होते हैं..
लेकिन आते रहना मेरा काम है..
रंगोली चाहे रहे ना रहे मुझे आना ही है..
हां , मुझे आना ही है हर बार सिर्फ तुम्हारे लिए..
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12 January 2011 at 22:35)
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Comment
बागी जी , कैसे होते हैं यह तो पता नहीं पर हाँ लिखता ज़रूर हूँ जो मन में आता है.....
आपका धन्यवाद दोस्त.......
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