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हल्द्वानी में आयोजित ओ बी ओ ’विचार गोष्ठी’ में प्रदत्त शीर्षक पर सदस्यों के विचार : अंक 8

अंक 7 पढने हेतु यहाँ क्लिक करें…….

आदरणीय साहित्यप्रेमी सुधीजनों,
सादर वंदे !

ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति द्वारा "ओ बी ओ विचार-गोष्ठी एवं कवि-सम्मेलन सह मुशायरा" का सफल आयोजन आदरणीय प्रधान संपादक श्री योगराज प्रभाकर जी की अध्यक्षता में सफलता पूर्वक संपन्न हुआ |

"ओ बी ओ विचार गोष्ठी" में सुश्री महिमाश्री जी, श्री अरुण निगम जी, श्रीमति गीतिका वेदिका जी,डॉ० नूतन डिमरी गैरोला जी, श्रीमति राजेश कुमारी जी, डॉ० प्राची सिंह जी, श्री रूप चन्द्र शास्त्री जी, श्री गणेश जी बागी जी , श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री सुभाष वर्मा जी, आदि 10 वक्ताओं ने प्रदत्त शीर्षक’साहित्य में अंतर्जाल का योगदान’ पर अपने विचार व विषय के अनुरूप अपने अनुभव सभा में प्रस्तुत किये थे. तो आइये प्रत्येक सप्ताह जानते हैं एक-एक कर उन सभी सदस्यों के संक्षिप्त परिचय के साथ उनके विचार उन्हीं के शब्दों में...


इसी क्रम में आज प्रस्तुत हैं ओ बी ओ संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक श्री गणेश जी "बागी" का संक्षिप्त परिचय एवं उनके विचार.....

परिचय

नाम : गणेश जी "बागी"

पिता : श्री मुराली प्रसाद

जन्म स्थान : बलिया उत्तर प्रदेश

शिक्षा : सिविल अभियंत्रण में स्नातक डिग्री

लोकप्रिय साहित्यिक वेबसाइट ओपन बुक्स ऑनलाइन के संस्थापक और मुख्य प्रबंधक श्री गणेश जी "बागी" वर्तमान में पथ निर्माण विभाग, पटना बिहार में सिविल इंजिनियर के रूप में कार्यरत हैं, छंद युक्त तथा छंद मुक्त कविता, ग़ज़ल, गीत, लघु कथा आदि विधाओं पर आप निरंतर लेखन करते रहते हैं, हिंदी के साथ साथ भोजपुरी में भी आपकी उन्नत रचनाएँ विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर छपती रहती है |

श्री गणेश जी "बागी" का उद्बोधन :

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

साहित्य में इन्टरनेट के महत्व को समझने के लिए हमें दो दशक पूर्व में जाना होगा जब भारत में इन्टरनेट अपने शुरूआती दौर में था, अभिव्यक्ति का सुलभ माध्यम पत्र, पत्रिकायें ही थीं और इन माध्यमों पर बड़े बड़े साहित्यकार और संपादक मानो कुण्डली मारे बैठे थे. क्या मजाल कि किसी नव-हस्ताक्षर का लिखा छप जाय ! नव-हस्ताक्षर अपनी रचनाओं को प्रकाशन हेतु भेजते और संपादक जी उसे कचरे में. लेखक हतोत्साहित हो जाता. कुछ स्थानीय एवं छोटे स्तर की  पत्र पत्रिकायें छाप भी देतीं तो उनकी पहुँच बहुत ही सीमित होती थी. मंचो पर एकाधिकार कल क्या आज भी उन मठाधीशों का ही है जो नये हस्ताक्षरों को पनपने देने में अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस करते हैं. यदि हमें कोई जानकारी चाहिए होती थी तो उसके लिए एकमात्र रास्ता पुस्तकालय ही हुआ करता था जो आम जन की पहुँच से कोसो दूर था. ऐसी परिस्थितियों में इन्टरनेट तपते रेगिस्तान में शीतल छाँव की तरह आया और आया तो ऐसा आया की छा गया.

 

आज इन्टरनेट पर ढेरों साहित्यिक सामग्री उपलब्ध है जिसे हम जब चाहे चंद सेकंडों में प्राप्त कर लेतें हैं. कई साहित्यिक ई-पत्रिकायें उपलब्ध हो गईं हैं. साथ ही कई कई पत्र और पत्रिकायें अपना ई-वर्जन उपलब्ध करा रहीं हैं. जहाँ प्रिंट मिडिया की पहुँच की एक सीमा थी वहीँ वेब मिडिया ने इन सीमाओं और वर्जनाओं को तोड़ कही आगे निकल गई हैं. कुछ नामी गिरामी साहित्य पुरोधा जहाँ यह कहते नहीं थकते थे कि इन्टरनेट पर साहित्य तो कूड़े का ढ़ेर है आज वो अपना प्रोफाइल बनाये बैठे हैं.

 

इन्टरनेट की पहुँच होने के बाद ब्लागस्पाट ने लेखकों को एक बहुत बड़ी सुविधा प्रदान की, उसने हर लेखक को प्रकाशक बना दिया और अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम प्रदान कर दिया. साथ ही आरकुट और फेसबुक जैसी सोसल साईटों ने भी लेखकों को एक ग्लोबल मंच दिया है. यह अलग बात है कि कई कई लेखकों को चने की झाड पर चढ़ा कर बर्बाद करने का काम भी इन्ही सोसल साईट और ब्लागस्पाट पर हुआ है और हो रहा है. यह कहने की जरुरत नहीं कि सोसल साईट और साहित्यिक साईट में बहुत बड़ा अंतर है, सोसल साइट्स की लत उस दारु के लत के समान है जिसके आगे दूध अच्छा नहीं लगता.

 

साहित्य में अंतर्जाल के योगदान की बात हो और ओ बी ओ की बात न हो तो बात कुछ अधूरी सी होगी, बात २०१० की है मैंने महसूस किया कि अंतर्जाल पर साहित्य में काम तो हो रहा है किन्तु यह सभी कार्य वन-वे हो रहा है. ब्लागस्पाट के रूप में छोटी छोटी इकाइयों में लिखने वाले लेखकों की पहुँच एक सीमित पाठक गण तक ही है और वो एक दूसरे से अपनी रचनाओं को पढने की चिरौरी करते हुए दिखते है. कई लेखक साथियों के ब्लॉग पर आते हैं और वाह वाह, क्या बात है, बहुत खूब लिखने के बाद अपने ब्लॉग का पता देते हुए यह कह ज़ाते है कि कृपया यहाँ भी पधारें. यानी अपरोक्ष रूप से कहते है कि तेरा तो मैंने देख लिया अब तू भी मेरा आकर देख.

 

फिर मैंने सोचा कि क्यों ना एक ऐसी साईट तैयार की जाय जहाँ सभी लेखक एक छत के नीचे हों, एक दूसरे के गुरु भी बने और शिष्य भी, इंटरएक्टिव कार्यक्रम हो, एक परिवार की भाँति सीखने सिखाने का कार्य हो, लेखकों को प्रोत्साहित किया जाय. इसका परिणाम हआ कि १ अप्रैल २०१० को ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार विधिवत अस्तित्व में आ गया. वो कहते है ना .... मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग आते गए कारवां बनता गया ।

 

मेरे साथ भी कुछ यही हुआ, आदरणीया आशा पाण्डेय ओझा जी, आदरणीय योगराज जी, नविन चतुर्वेदी जी, राणा प्रताप जी, सौरभ पाण्डेय जी, अम्बरीश श्रीवास्तव जी, तिलकराज जी, वीनस केसरी् जी जैसे कई कई लोगो का सहयोग मिलता गया और ओ बी ओ का कारवां चल पड. आज ओ बी ओ ने तीन वर्ष से अधिक का समय पार कर लिया है. इन तीन वर्षों में कई सारे खट्टे मीठे अनुभव भी हुए जिनका जिक्र यहाँ आवश्यक नहीं है.  किन्तु यह जरुर कहूँगा कि नकारात्मक शक्तियाँ पूरी ताकत से पैर खीचने में लगी थीं और लगी हैं. किन्तु मैंने भी सुन रखा था कि यदि आप पवित्रता के साथ एक कदम बढ़ाते हैं, तो पूरी कायनात मदद के लिए दस दम आगे आ जाती है, और परिणाम आपके सामने है.

साहित्य में अंतर्जाल का महत्व कितना है यह कहने की जरुरत नहीं, मैं जीता जगता सबूत ही प्रस्तुत कर रहाँ हूँ , आज हम सभी उसी अंतर्जाल की वजह से इकठ्ठा हुए है और इससे बड़ा कोई क्या सबूत होगा मैं नहीं समझता. धन्यवाद..

 

अगले सप्ताह अंक 9 में जानते हैं ओ बी ओ प्रधान सम्पादक श्री योगराज प्रभाकर जी का संक्षिप्त परिचय एवं उनके विचार.....

 

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Comment

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Comment by Kapish Chandra Shrivastava on October 9, 2013 at 6:28pm

आदरणीय बागी जी, हल्द्वानी में आयोजित ओ.बी. ओ. विचार गोष्ठी में आपका दिया उद्बोधन मैंने पढ़ा । पढ़ते -पढ़ते सम्मोहित सा विचारों में खोता चला गया । आपने 3. 5  साल पहले इंटर -नेट पर अपने सपनों का एक छोटा सा पौधा रोपा था देखते -देखते वो छोटा सा पौधा एक सदाबहार विशाल बरगद बन गया है । अंततः  आपकी मेहनत  रंग  लाई  । उस बरगद के एक नए कोपल  के रूप में अपने को पाकर मै  भी अपने आप को  रोमांचित एवं गौरवान्वित महसूस कर रहा  हूँ । आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ।  आपका स्वप्न पूरा हुआ इस ख़ुशी में आपको अतिशय बधाई आदरणीय बागी जी ।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 7, 2013 at 10:13am

haldwaani  में आयोजित ओ बी ओ विचार-गोष्ठी एवं कवि-सम्मेलन सह मुशायरा में प्रस्तुत आपके विचारों के माध्यम से 

ओबीओ की स्थापना के प्रष्ठभूमि और उसके विकास के बारे में जानकारी प्राप्त कर प्रसन्नता हुई आदरणीय श्री गणेशजी "बागी"

जी | अगर मकसद सही हो और शुद्ध सात्विक वातावरण, तो निश्चय ही कारवाँ जुड़ता चला जाता है | आपके विचारों से जानकारी के अतिरिक्त सीख भी मिल रही है | इसके लिए हार्दिक बधाई, साधुवाद एवं शुभकामनाए 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on October 6, 2013 at 8:54pm

यदि आप पवित्रता के साथ एक कदम बढ़ाते हैं, तो पूरी कायनात मदद के लिए दस कदम आगे आ जाती है

आदरणीय बागी जी ..बधाई हो ये कारवाँ यूं ही बढ़ता रहे ....समयाभाव वश प्रत्यक्ष रूप से शामिल नही हो पाता गोष्ठियों में मन मसोस कर रह जाता है लेकिन अंतरजाल और चिट्ठों से आप सब का साथ , स्नेह मिलता है मन रमा रहता है सभी विद्वद जन से बहुत कुछ सीखने को मिलता रहा है बड़ी ख़ुशी होती है ....
ये प्रयास भी आप का सराहनीय है सभी व्यक्तित्व को नजदीक से जानने का सुनहरी अवसर तो देगा ..
आप सफलता के सोपान पर हम सब को लिए बढ़ते चलें ..हार्दिक शुभ कामनाएं
जय श्री राधे
भ्रमर ५

Comment by MAHIMA SHREE on October 6, 2013 at 5:48pm

//मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग आते गए कारवां.....यदि आप पवित्रता के साथ एक कदम बढ़ाते हैं, तो पूरी कायनात मदद के लिए दस दम आगे आ जाती है, और परिणाम आपके सामने है.////

आदरणीय बागी जी ओबिओ की साहित्यक यात्रा और इसकी सफलता .. आपकी व्यापक सोच , दूरदर्शिता .. लगन ..का ही परिणाम है ... वाकई ओबिओ का शुद्ध सात्विक साहित्यक वातावरण .. गुरुजनों का  स्नेह और सानिध्य .. के कारण ही किसी से कभी नहीं मिलने के बावजूद  पुरे विश्वास के साथ हम सब हल्द्वानी पहुच गए ... और सभी से मिल कर आशा से ज्यादा ख़ुशी मिली ...

 

जो सहजता और सरलता आपके व्यक्तिव् में है वही ओबिओ में भी परिलक्षित होता है और इस मंच यही   सबसे बड़ी खूबी  भी  है ...... आपका अंतरजाल पर साहित्य के लिए किया गया  योगदान हमेशा हमेशा याद किया  जाएगा ..बहुत  हार्दिक शुभकामनाये ...

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 6, 2013 at 12:31pm

आदरणीय भ्राताश्री क्षमा चाहता हूँ टिपण्णी करने के तनिक विलम्ब हो गया कई बार यहाँ आया आपके उत्तम विचार पढ़े और समयाभाव के कारण कुछ कह न सका. आपके सटीक विचार हम सभी को बहुत कुछ सिखा जाते हैं आपके विचारों के जरिये आपको और अधिक जानने और समझने को मिला. सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 5, 2013 at 11:55pm

परिचर्चा हेतु हलद्वानी की गोष्ठी में दिये गये शीर्षक को संतुष्ट करते सटीक विचारों औ सार्थक विन्दुओं को आपने मंच से रखा था, भाई गणेशजी.

इस हेतु आपको पुनः बधाइयाँ और भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ.

शुभ-शुभ

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 5, 2013 at 9:40pm

अति उत्तम सम्बोधन आप सभी के जो भी लिखा है पढ़ते ही समझ आ गया कि किस्मत वाले है हम लोग जो हमको ये प्लेट फ़ोर्म मिला है ! सच में हम कृतज है आपके !

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on October 5, 2013 at 8:43pm
आदरणीय बागी जी! उत्कृष्ट विचार। लेकिन मलाल के साथ। और मलाल इतना कि हर बार जब इस शृंखला का आलेख निकलता है, तब मैं अपने आपको इतना अभागा महसूसने लगता हूँ कि सिर धुनि धुनि पछिताय, कालहि करमहि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाय। लेकिन अफसोस कि कुछ कर नहीं सकता क्योकि अब पछताये होत का चिड़िया चुग गयी खेत।
तथापि आशा करता हूँ कि अगले वर्ष होने वाले सम्मेलन में अवश्य सहभागी होऊँगा।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 5, 2013 at 8:03pm

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग आते गए कारवां बनता गया ।---और ये कारवाँ इसी तरह और उत्साह और होंसलों के साथ आगे बढ़ता रहे यही मेरी मंगल कामना है --आपको आयोजन में सुना था अब पढ़कर ऐसा लगा जैसे किताब का वो पन्ना फिर पलट कर आँखों के सम्मुख आ गया बहुत अच्छा लगा यादें ताजा हो गई ,जो उस आयोजन में नहीं गए थे उनको भी आपके उद्बोधन से लाभान्वित होने का अवसर देती हुई इस पोस्ट के लिए ढेरों बधाई ,आदरणीय गणेश जी को बहुत बहुत बधाई 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 5, 2013 at 7:10pm

 ' बागी ' के बागी तेवर से , ओ बी ओ की शुरुवात हुई ।

जितने  रचनाकार जुड़े हैं , एक   सभी की  जात हुई ॥

ओ बी ओ अब तीन बरस का, दौड़ना भी सीख लिया।

लिख्नने में लंगड़ाते थे, हम ने भी चलना सीख लिया ॥  सादर....... अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव ।

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