मतिमान सोचा करते हैं, चिंता भीरु करते हैं.
क्षणिक मोद में जो इठलाते, वही विपति से डरते हैं.
जिस तरह गोधुलि का होना, निशा - आगमन का सूचक है.
जैसे छाना जगजीवन का, पावस का सूचक है.
वैसे ही सुख के पहले, दुःख सदैव आता है.
जो मलिन होता दुःख से, सुख से वंचित रह जाता है.
सुख - दुःख सिक्के के दो पहलू , भेद मूर्ख ही करते हैं.
मतिमान सोचा करते हैं, चिंता भीरु करते हैं.
दुःख दहलाता कायर को ही, कर्मवीर नहीं घबड़ाता है.
धन - दौलत की लालच में, निज मस्तक नहीं झुकाता है.
मनुज बना है दो तत्वों से, जो सुख - दुःख कहलाता है.
जैसे शुक्ल और कृष्ण का, रजनी ही निर्माता है.
पुरुषोतम दुःख को सहर्ष, निज धर्म समझकर सहते हैं.
मतिमान सोचा करते हैं, चिंता भीरु करते हैं.
क्षणभंगुर सुख का आकर्षण, सत्य नहीं दिखावा है.
निज लक्ष्य से बहकाने को, माया का एक छलावा है.
पर कहता इतिहास, बहुत ने इस रहस्य को जान लिया.
भगत - आजाद - हामिद ने अपनी, मंजिल को पहचान लिया.
इन्द्रिय - सुख है दीप, पतंगा बन मतिमंद ही जलते हैं.
मतिमान सोचा करते हैं, चिंता भीरु करते हैं.
सब दिन एक समान न होता, समय एक गतिमान चक्र.
पूर्णिमा का चाँद, दूज को हो जाता है बक्र.
वर्त्तमान में जियो, मात्र धर्म यह तेरा है.
प्रिय, तुम्हारे कर कमलों में, मानसरोवर मेरा है.
गीतकार -- सतीश मापतपुरी
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thank u ganeshji
जिस तरह गोधुलि का होना, निशा - आगमन का सूचक है.
जैसे छाना जगजीवन का, पावस का सूचक है.
वैसे ही सुख के पहले, दुःख सदैव आता है.
सतीश भईया, बहुत ही सुन्दर रचना, एक एक पक्ति सूक्ति वाक्य की तरह है, बधाई आपको |
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