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पेट हो खाली तो फिर कैसे खेले गोटियां
अब मयस्सर हैं बस ख्व़ाब में ही रोटियाँ
.
तुम्हें मुबारक हो शाहों की दावतें हमको
मिल जाएँ खाने को दो चार सूखी रोटियाँ
.
माल असबाब की तो तुमको ज़रूरत होगी
अपनी पूँजी सुबह औ शाम की हैं रोटियाँ
.
अपने कांधों पर लिए बोझ गरिबी हर दिन
चढ़ाती रहती है अमीरों को ऊँची चोटियाँ
.
अब ये दस्तूर ही बना लिया है मुंसिफ ने
माँगो इनसाफ़ तो देता है सबको सोटियाँ
.
कम-से-कम इतना करम तो रब्बा कर दे
हमें मिले ना मिले पर मेहमां को मिले रोटियाँ
.
मुफलिसी जो ना करा दे ‘प्रदीप’ वो कम है
छीन लेता है इंसाँ कुत्ते के मुँह से रोटियाँ
.
-प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on September 9, 2019 at 2:52pm

जनाब प्रदीप जी आदाब,ग़ज़ल अभी समय चाहती है,बह्र भी गड़बड़ है,और क़वाफ़ी भी दुरुस्त नहीं हैं,देखियेगा ।

कृपया ध्यान दे...

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