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स्मृतियों के अनगढ़ कमरे से

अचानक बाहर फुदक आयी हैं कुछ नम रोशनियाँ... /आज फिर.. ..

एक बार फिर

मासूम सी कोशिश की है इनने..

कि, मनाँगन में

कशिशभरी आवारा धूप बन लहर-लहर नाचेंगी..

 

तुम मेरे साथ हो न हो.... ..

इन रोशनियों के साथ जरूर होना.. ..

...............कोशिश तो करना.. ..

मुझे पता है .. गया समय उल्टे पाँव नहीं चलता..

किन्तु इन भोली-निर्दोष रोशनियों को अब कौन समझाये..

और देखो.. ..

तुम भी मत समझाना.. ../अभी बचपना नहीं गया है न../

---चिर युवा होने का श्राप जो लगा है--

इनके अवगुंठित

दग्ध परिचय को

तुम अपने होने भर का अहसास भरा मरहम दे सको

तो, मैं खुशी-खुशी कुछ और खोल दूँ

अपने इस बेतरतीब कमरे के दरवाजे

 

रोशनियों को जाने क्यों... कबसे..  मेरा रूप मिल गया है.. 

और बार-बार.. मेरे रूप को ओढ़े

फुदक-फुदक आती हैं--

स्मृतियों के अनगढ़ कमरे से बाहर

उनकी अल्हड़ मासूमियत पर जाने क्यों

मेरी आँखों की समझदार कोर तक

नासमझ बनी   नम-नम हुई जाती हैं... ..

 

काश.. काश..

काश.... ..

.

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Comment

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Comment by Veerendra Jain on June 25, 2011 at 12:56pm
ek baar padhkar mann nahi bharta..ati uttam rachna..saurabh sir ..hardik badhai..
Comment by Abhinav Arun on June 25, 2011 at 12:51pm

निश्छल जल सी प्रवाह मान काव्य के लिए साधुवाद श्री saurabh जी !

"मुझे पता है .. गया समय उल्टे पाँव नहीं चलता..

किन्तु इन भोली-निर्दोष रोशनियों को अब कौन समझाये..''

सोच और सन्दर्भों की एक अलग दुनिया की सैर कराती रचना ...अति सुन्दर और प्रभावी अभिव्यक्ति !!!

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