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ग़ज़ल: फिर ज़िंदगी से अपनी पहचान हो न जाए

फिर ज़िंदगी से अपनी पहचान हो न जाए
साँसों का आना जाना आसान हो न जाए


अपनी शनावरी पे इतरा न ऐ शनावर
शोहरत का ये समुंदर दालान हो न जाए


इस बार भी मैं दफ़्तर ताख़ीर से गया तो
डर है कि नौकरी का नुक़सान हो न जाए


मज़लूम पे सितम के तुम ती मत चलाओ
अशकों से रेज़ा रेज़ा चट्टान हो न जाए


अपना समझ के जिस की देहलीज़ चढ़ रहा हूँ
यारों कहीं वो हम से अंजान हो न जाए


"सुरख़ाब"उड़ न जाएें यादों के ये कबूतर

दिल का खण्डर हमारा वीरान हो न जाए

सुरख़ाब बशर

मौलिक / अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on December 13, 2018 at 10:33pm

जनाब सुरख़ाब बशर साहिब आदाब,ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'  मज़लूम पे सितम के तुम ती मत चलाओ'

इस मिसरे में टंकण त्रुटि है 'ती' को "तीर" कर लें ।

'अपना समझ के जिस की देहलीज़ चढ़ रहा हूँ 
यारों कहीं वो हम से अंजान हो न जाए'

इस शैर में शुतरगुरबा ऐब है,ऊला मिसरा यूँ कर लें,ऐब निकल जायेगा:-

'अपना समझ के जिसकी दहलीज़ चढ़ रहे हैं'

'दिल का खण्डर हमारा वीरान हो न जाए'

'खण्डर' तो वीरान ही होते हैं भाई, इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'दिल का मकाँ हमारा वीरान हो न जाये'

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