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जीवन की धमाचौकड़ी में वो अस्त-व्यस्त था।

मिलता तो था सभी से मगर ज़्यादा व्यस्त था।।

 

हर चंद कोशिशें थीं  कि दीदार-ए-यार  हो।

पहरा मगर महल में बहुत ज़्यादा सख्त था।।

 

कहने को गर हैं भाई फिर मैदान-ए-जंग में।

गिरता था ज़मीन पे वो फिर किसका रक्त था।।

 

गर सब हैं बेगुनाह तो चल अब तू ही दे बता।

खंज़र मेरे शरीर में वो किसका पेवस्त था।।

 

जिससे भी जुड़ा रिश्ते में वो बंधता चला गया।

बस उसका ही मिजाज थोड़ा ज़्यादा सख़्त था।।

 

हर जंग जीतकर वो कहलाया था सिकंदर।

पोरस से जब मिला तो हौसला उसका पस्त था

 

उस पर ‘प्रदीप’ कोई भी मुसीबत नहीं आई।

शायद वो किसी देवता का परम भक्त था।।

-प्रदीप भट्ट-

उपरोक्त रचना मौलिक एवं अप्रकाशित है।

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Comment by Samar kabeer on August 27, 2018 at 11:39am

जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन अभी समय चाहता है,ग़ज़ल सीखने के लिये ओबीओ पर समूह "ग़ज़ल की कक्षा" का लाभ लें,इस प्रयास के लिये बधाई स्वीकार करें ।

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