जब चारों ओर केवल अन्धकार का अस्तित्व था, न सूर्य था न चन्द्रमा और न कहीं ग्रह-नक्षत्र या तारे थे, दिन एवं रात्रि का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, अग्नि, पृथ्वी, जल एवं वायु का भी कोई अस्तित्व नहीं था, तब एकमात्र भगवान शिव की ही सत्ता विद्यमान थी; और यह वह सत्ता थी जो अनादि एवं अनंत है।
एक बार भगवान शिव की इच्छा सृष्टि की रचना करने की हुई। उनकी एक से अनेक होने की इच्छा हुई। मन में ऐसे संकल्प के जन्म लेते ही भगवान शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया। उन्होंने उनसे कहा, ‘‘हमें सृष्टि की रचना के लिए किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिए, जिसके कन्धे पर सृष्टि-संचालन का भार सौंपकर हम मुक्त होकर आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें।’’ ऐसा निश्चय करके भगवान शिव पुन: अम्बिका के साथ एकाएक हो गये और अपने वाम अंगों के दसवें भाग पर अमृत मल दिया।
इस प्रकार विष्णु की उत्तपत्ति हुई-एक दिव्य पुरुष, जिसका सौंदर्य अतुलनीय था। उनके चार हाथ थे। एक में शंख, एक में चक्र, एक में गदा तथा एक हाथ में पद्म सुशोभित हो रहा था।
भगवान शिव ने इस दिव्य पुरुष को विष्णु नाम दिया और उन्हें उत्तम तप करने का आदेश देते हुए कहा, ‘‘वत्स ! सम्पूर्ण सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व मैं तुम्हें सौंपता हूं।’’ भगवान विष्णु कठोर तप के कारण उनके अंगों से असंख्य जल-धाराएं निकलने लगीं जिनसे सूना आकाश भर गया। अंतत: अपने कठोर तप के श्रम से क्लान्त होकर भगवान विष्णु ने उसी जल में शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही भगवान विष्णु का एक नाम नारायण हुआ।
कुछ समय पश्चात सोते हुए भगवान विष्णु की नाभि से निकलकर एक उत्तम कमल का पुष्प अस्तित्व में आया जिस पर उसी समय भगवान शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके डाल दिया। ब्रह्मा जी दीर्घ अवधि तक उस कमल के नाल में भ्रमण करते रहे, अपने उत्पत्तिकर्ता को ढूंढ़ते रहे, पर कोई लाभ नहीं हुआ। तब आकाशवाणी हुई, जिसके आदेशानुसार ब्रह्मा जी ने निरंतर बारह वर्षों तक कठोर तप किया।
बारहवें वर्ष की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के समक्ष भगवान विष्णु प्रकट हुए। भगवान शिव की लीला से भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी के मध्य अकारण विवाद छिड़ गया। विवाद चल ही रहा था कि दोनों के बीच एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी अथक प्रयास करके भी अग्निस्तम्भ के आदि-अंत का पता नहीं लगा सके। अंत में हारकर भगवान विष्णु ने अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की, ‘‘महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को जान सकने में असमर्थ हैं। आप जो भी हो, हमारे ऊपर कृपा करें तथा प्रकट हों।’’
भगवान विष्णु की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव प्रकट हो गये। उन्होंने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के कठोर तप और भक्ति से प्रसन्न हूं। ब्रह्मन् ! मैं समस्त सृष्टि का उत्तरदायित्व तुम्हें सौंपता हूं। विष्णु पर समस्त चराचर जगत् के पालन का उत्तरदायित्व होगा।’ इतना कहकर भगवान शिव ने अपने हृदयभाग से रुद्ध को प्रकट किया और उन्हें संहार का उत्तरदायित्व सौंपकर अंतर्धान हो गये।
ब्रह्मा जी ने अपने कार्य का आरम्भ मानसिक सृष्टि से किया, परन्तु जब उनकी मानसिक सृष्टि विस्तार नहीं पा सकी तो वे अत्यन्त दु:खी हो उठे। उसी समय आकाशवाणी हुई, जिसके माध्यम से उन्हें मैथुनी सृष्टि का आरम्भ करने का आदेश मिला। तब तक नारियों की उत्पत्ति नहीं हुई थी।
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