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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५८

1212 1212 1212 1212

दिलों की आग बुझ गई, जिगर में अब धुआँ नहीं
कि तुम भी अब जवाँ नहीं, कि हम भी अब जवाँ नहीं

सितारे गुम हुए सभी, रुपहली कहकशाँ नहीं
ज़मीने दिल पे अब तेरी वफ़ा का आसमाँ नहीं

सफ़र भी ज़िंदगानी का हुआ कभी अयाँ नहीं
जहाँ पे रहगुज़र मिली वहाँ पे कारवाँ नहीं

वो मुझसे बोलता नहीं, वो मुझसे सरगिराँ नहीं
वफ़ा की आग क्या लगे, जहाँ उठे धुआँ नहीं

यूँ मह्वे आशिक़ी हुआ, ख़्याले जिस्मोजाँ नहीं
मेरी वफ़ा के सामने फ़लक़ भी बेकराँ नहीं

ये खल्क़ तो बहिश्त की नज़ीरे गुलसिताँ नहीं
कोई है घर पे मुंफ़रिद, किसी को आशियाँ नहीं

तफर्क़ा ए ख़्याल का है मुद्दआ कहाँ नहीं
इसीलिए तो आपसे हुए हैं बदगुमाँ नहीं

हवास की ख़िरद कभी रही है पासबाँ नहीं
कहो कि कब ज़मीर ने लिया है इम्तिहाँ नहीं

मैं रहगुज़र का हूँ मकीं मेरा कोई मकाँ नहीं
तलाशे ख़ुद के वास्ते फ़िरा कहाँ कहाँ नहीं

हुईं न ख़त्म हसरतें अगरचे अब जवाँ नहीं
है तीर अब भी हाथ में, मगर वो अब कमाँ नहीं

हमारे घर वो रौनके बहारे गुलसिताँ नहीं
तू जब से मेरे क़ुर्ब का हुआ है मेहमाँ नहीं

है सच कि मैं कभी गया किसी के आस्ताँ नहीं
ख़ुदी को फ़त्ह जो करे मिला वो हुक्मराँ नहीं

है कैफ़ियत मिजाज़ की ख़मोशियाँ हैं ओढ़ ली
मगर हैं नातवाँ नहीं, हुए हैं बेज़ुबाँ नहीं

सँभाल कर रखा करें मता ए हुस्न राज़ से
लगा दें आग वो कि यूँ ज़रा सा हो धुआँ नहीं

~राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित" 

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Comment by राज़ नवादवी on July 2, 2018 at 4:13pm

आदरणीय जनाब मुहम्मद आरिफ़ साहब, आदाब. ग़ज़ल में आपकी शिरकत एवं हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. जनाब समर कबीर साहब की इस्लाह पे अमल किया जाएगा. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on July 2, 2018 at 4:10pm

आदरणीय ब्रिजेश कुमार ब्रज जी, आपकी ग़ज़ल में शिरकर एवं सुखन नवाज़ी का ह्रदय से आभार. सादर. 

Comment by राज़ नवादवी on July 2, 2018 at 4:09pm

आदरणीय समर कबीर साहब, आपकी इस्लाह का ह्रदय से आभार. सुझाए गए बदलाव पे अमल करूंगा. सफ़र-ए-जिंदगानी जैसी इज़ाफ़त मैंने कहीं देखी है, या शायद मैं ग़लत भी होऊं. अगर मिसाल मिली तो ज़रूर साझा करूंगा. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया. सादर. 

Comment by Mohammed Arif on July 2, 2018 at 2:09pm

आदरणीय राज़ नवादवी जी आदाब,

                        शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का संज्ञान लें ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 2, 2018 at 12:49pm

वाह आदरणीय राज साहब...एक अलग ही अंदाज की ग़ज़ल पढ़ने को मिली..शुक्रिया इस ग़ज़ल के लिए

Comment by Samar kabeer on July 2, 2018 at 12:10pm

जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

हुस्न-ए-मतला में 'सितारे गुम गये' को "सितारे गुम हुए" करना उचित होगा क्या?

'सफ़र-ए-ज़िन्दगानी भी हुई कभी अयाँ नहीं'

इस मिसरे में 'सफ़र' शब्द में इज़ाफ़त मुझे खटक रही है,उर्दू शाइरी में अगर ऐसी कोई मिसाल हो तो बराह-ए-करम साझा करें,दूसरी बात ये कि "सफ़र" शब्द पुल्लिंग है, इस दृष्टि से इस पर थोड़ा ग़ौर करें ।

'ख़ुदी को जो फ़तह करे मिला वो हुक्मरां नहीं'

इस मिसरे में 'फ़तह' शब्द का वज़्न आपने 21 लिया है,जबकि सहीह शब्द है "फ़त्ह" और इसका वज़्न 21 है, मिसरा यूँ कर सकते हैं:-

'ख़ुदी को फ़त्ह जो करे मिला वो हुक्मरां नहीं'

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