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बुद्धिजीवी कौन? (लघुकथा)

"कहते हैं साहित्यकारों, लेखकों, खिलाड़ियों, वैज्ञानिकों और डॉक्टरों का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता!" युवा दोस्तों के समूह में से एक ने कहा।


"शिक्षकों, छात्रों, और राजनेताओं का भी तो क़ायदे से कोई धर्म या मज़हब नहीं होता!" दूसरे दोस्त ने अपना किताबी ज्ञान झाड़ा।


"अबे, तो क्या ड्राइवरों, पुलिस, सैनिकों और वकील-जजों का भी कोई धर्म या मज़हब नहीं होता?" तीसरे साथी ने झुंझलाकर कहा।


"हां कहा तो यही जाता है कि किसी भी तरह के कलाकारों का भी इसी तरह न कोई धर्म होता है, न ही कोई मज़हब! .. चाहे वह फ़िल्मी, चित्रकला, फोटोग्राफी की फील्ड का हो , चाहे नृत्य, संगीत और गायन वग़ैरह का!" उन दोस्तों में से एक कलाकार बोला।


"तो फिर हमारे आक़ाओं का, चोरों-अपराधियों और आतंकवादियों का भी कोई धर्म या मज़हब नहीं होगा न!" एक साथी ने सवाल में जवाब लपेटते हुए कहा।


"हां, सही कहा तूने, क्योंकि वे सब एक हैं न!" दूसरे साथी ने ठहाका मारकर कहा।


वहीं खड़े हुए एक बुज़ुर्ग ने उनकी बातें सुनकर एक सांस में कटाक्ष करते हुए कहा - "तो फिर धर्म और धार्मिक ग्रंथों और स्थलों को कौन और क्यों संभाले? केवल अशिक्षित, अल्पशिक्षित या उच्च शिक्षित धर्म-गुरू- साधु-संत या हाइ-टेक-बाबा-साम्राज्य? या उन पर राजनीति, तानाशाही, आतंक या अंतरराष्ट्रीय व्यापार करने वाले उद्योगपति? या फिर केवल अशिक्षित, अल्पशिक्षित, साक्षर या निरक्षर ग़रीब?"


"भेजा ख़राब हो गया कथनी और करनी में अंतर देख-देख के! हो क्या रिया इस सदी में! अंय!" उन दोस्तों में से एक ने अपने सिर पर दोनों हाथ रखकर वहीं उकड़ू बैठते हुए कहा।


(मौलिक व अप्रकाशित)

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"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर "
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