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विरह रो रहा है... मिलन गा रहा है

मधुर अप्राकृत  प्यार ...

करी थी जिसकी इन्तज़ार

ज़िन्दगी भर  ... ज़ार-ज़ार

आया है स्वयं अब वसन्त बन

निकटतम आस-पास, इतना पास

 

ज़िन्दगी के इस पढ़ाव पर

तुम आई रवि-रश्मि बन प्रिय

तुम्हारे अप्रतिम स्नेह में मानो

मैं हूँ विराजा राज-सिहाँसन पर

परी-सी आई हो किस निद्रा के द्वार

 

झूम रहे स्नेह के हल्के-हल्के उदगार                     

उपवन में गा रहे कोयल, फूल, और धूप

हर्षित है संग उनके  यह खुला आकाश

ऐसे में सच कह सकोगी क्या कि नींदों में

छुप-छुप कर जो आया  वह प्यार नहीं है

 

सुनो, सुनो मेरे प्यार

मन में हमारे है असीम उमंग          

विद्रूप  वेदना  भी  है  प्रच्छन्न

फिर आलोचनाशील मन है द्वंद्व में क्यूँ

है क्यूँ निज प्रति असंवेदनशील अपार

 

धकेल दिया है अन्धकार को सीमा से बाहर

फिर आँखों में तुम्हारी भी क्यूँ चमक रहा है

आँसू बन कर शून्य का कोई बुलबुला टूटता

गालों  पर  टपकते सरकते  पूछ रहा है वह

उलझन में तुमसे बार-बार कोई प्रश्न कठिन 

 

आज जब मामूली अबोध सचाइयों के बीच हमें

है नियति से  कोई शिकायत नहीं,  विलाप नहीं

क्या है जो बेमाप अँधेरे में करता है अमंगल इशारे

लौटा लाता है तकलीफ़-भरा वही एक प्रश्न बीच हमारे

चल सकेंगे साथ हम कब तक, कहाँ तक, लिए हाथ में हाथ ?

भविष्य की कटी-पिटी रेखाओं में

तुम्हारे बिना  मैं  हूँ अपाहिज-सा

प्रिय, मैं  भटक जाने से डरता हूँ ...

               --------

-- विजय निकोर

* यह भाव प्रिय गोपाल दास नीरज जी की ज़मीन से है

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on May 22, 2018 at 7:55am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी

Comment by vijay nikore on May 22, 2018 at 7:54am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहित जी

Comment by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 3:34pm

वाह आदरणीय विजय निकोर जी वाह ... अंतर्मन के भावों का सहज प्रस्तुतीकरण हुआ है ... शब्द सौंदर्य और भाव प्रवाह देखते ही बनता है ... मन का डर प्रेमासक्ति का चरम है ... कल्पना और कलम का मेल अद्भुत हुआ है ... दिल से बधाई स्वीकार करें सर।

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