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एक बार फिर कंधे पर,
लैपटॉप बैग लटकाये,
वह अलस्सुब्ह निकल पड़ा.
रात को देर से आने पर,
हमेशा की तरह
नींद पूरी नहीं हुई थी,
जलती हुई आँखों,
और ऐठन से भरे शरीर,
को घसीटता हुआ वह,
जल्दी जल्दी बस स्टॉप की तरफ
भागने की कोशिश कर रहा था.
कल रात की बॉस की डांट,
उसे लाख चाहने के बाद भी,
भुलाते नहीं बन रही थी.
कहाँ सोचा था उसने पढ़ते समय,
कि यह हाल होगा नौकरी में.
कहाँ वह सोचता था कि उसे,
मजदूरी नहीं करनी पड़ेगी,
जैसे उसके पिता करते थे
और उसे बेहतर बनाने में,
अपने शरीर का एक एक
बूंद खून जला बैठे थे,
और जिन्दा भी नहीं बचे
उसे कुछ करते देखने के लिए.
आज उसे यक़बयक़ याद आया,
पिता मजदूर तो थे लेकिन,
रात होते होते घर आ जाते थे,
और किसी का भी कोई आदेश,
उसके बाद नहीं आता था उनके पास.
बच्चों के भविष्य की चिंता जरूर थी,
लेकिन हर समय का तनाव नहीं था.
शरीर जरूर उनका सूख गया था,
लेकिन उसे देखकर,
चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती थी.
आज उसे याद भी नहीं है,
कि उस तरह की मुस्कुराहट,
उसके चेहरे पर आखिरी बार कब थी.
आज वह मजदूर तो नहीं है,
लेकिन शायद उससे भी गया गुजरा है.

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on May 3, 2018 at 6:28pm

शुक्रिया आ मुहतरम जनाब समर कबीर साहब, आपके सुझाव पर संसोधन कर देता हूँ. शुक्रिया

Comment by Samar kabeer on May 2, 2018 at 11:13am

जनाब विनय कुमार जी आदाब,बहुत ही सुंदर और प्रभावी कविता लिखी आपने मज़दूर दिवस पर, इस बढ़िया प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

तीसरी पंक्ति में 'अलसुबह' ग़लत है,सहीह शब्द है "अलस्सुसुब्ह" देखियेगा ।

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