221 2121 1221 212
इंसानियत के तंग सभी दायरे हुए।
दिखते नहीं हैं लोग जमीं से जुड़े हुए।।
जो सुर्खियों में रहते हमेशा बने हुए।
रहते है लोग वो ही ज़ियादा डरे हुए।।
आहट हुई जरा सी बुरे वक़्त की तभी।
कुछ साँप आस्तीन से निकले छुपे हुए।।
वो इस लिये खड़ा है बुलन्दी पे आज भी।
डरता नहीं है झूठ कोई बोलते हुए।।
ख्वाबों में देखता हूँ जिसे रोज रात में।
कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे सोचते हुए।।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदाब मोहतरम मुहम्मद आरिफ साहब। बहुत बहुत शुक्रिया आपका । बहुत बहुत आभार जी। सही कहा आपने बेहतरी की गुंजाइश हमेशा रहती है।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय सुशील सरना जी । बहुत बहुत आभार जी।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय हर्ष महाजन जी । बहुत बहुत आभार जी। सादर नमन जी।
मोहतरम समर कबीर साहब आदाब। बहुत बहुत शुक्रिया आपका ,आपने ग़ज़ल को समय दिया । आखरी शेर में सुधार करता हूँ। सादर जी।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय नीलेश भाई जी । बहुत बहुत आभार जी।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका रोहित डोबरियाल जी।
हार्दिक बधाई ...
जो सुर्खियों में रहते हमेशा बने हुए।
रहते है लोग वो ही ज़ियादा डरे हुए।
वो इस लिये खड़ा है बुलन्दी पे आज भी।
डरता नहीं है झूठ कोई बोलते हुए।।.....वाह
वो इस लिये खड़ा है बुलन्दी पे आज भी।
डरता नहीं है झूठ कोई बोलते हुए।
SMAY AUR KAAL PR STIK VNGY KRTA SHER HAI YE
वो इस लिये खड़ा है बुलन्दी पे आज भी
डरता नहीं है झूठ कोई बोलते हुए
यह एक असाधारण शेर है जो अपने देश के ही नहीं आज के पूरे वैश्विक परिदृश्य पर प्रभावी टिप्पणी करता है.
आदरणीय सुरेन्द्र जी, ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
वाह क्या कहने बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है..
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