आज फिर उसने कुछ कहा मुझसे।
आज फिर उसने कुछ सुना मुझसे।।
बाद मुद्दत के आज बिफ़रा था।
आज दिल खोल कर लड़ा मुझसे।।
जिसकी क़ुर्बत में शाम कटनी थी।
हो गया था वही ख़फ़ा मुझसे।।
दूर दिल से हुए सभी शिकवे।
टूट कर ऐसे वो मिला मुझसे।।
दरमियाँ है फ़क़त मुहब्बत ही।
अब कोई भी नहीं गिला मुझसे।।
चांद तारे या वो फ़लक सारा।
बोल क्या चाहिए ? बता मुझसे।।
क़ुर्बत= सामीप्य
फ़लक= आसमान
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अजय तिवारी जी, हृदय तल से आभार
आदरणीय अफ़रोज़ सहर जी बहुत बहुत आभार
आदरणीय पवन जी,
खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाईयाँ.
सादर
आदरणीय समर साहब, जिस मिसरे से मैं खुद पूरी तरह से मुतमईन नहीं था उसे उध्दृत करने के लिये सादर धन्यवाद। असल में इस पूरी ग़ज़ल में एक दृश्य कहने का प्रयास किया और उनके रूठने की बात भूतकाल में कहने की मजबूरी आड़े आ रही थी क्योंकि आज तो हम साथ बैठे हैं। इसीलिये 'था' के साथ मिसरा कहना पड़ा।
गिला वाले मिसरे को आपके सुझाव के अनुसार मूल में परिवर्तित कर लिया है। कोटिशः धन्यवाद।
आदरणीय बन्धु सतविंद्र राणा जी, आभारम
आदरणीय मनोज कुमार जी, आपकी टिप्पणी के लिये सादर आभार
आदरणीय कालीपद जी, हृदय तल से आभार
जनाब डॉ.पवन मिश्र जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
'हो गया था वही ख़फ़ा मुझसे'
अगर इस मिसरे को यूँ कहें तो?
'हो गया आज वो ख़फ़ा मुझसे'
'अब कोई भी नहीं गिला मुझसे'
'अब उसे कुछ नहीं गिला मुझसे'
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