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नही हमको जो भाता क्यों करें हम
कोई झूठा बहाना क्यों करें हम

हमीं से रौशनी है चार सू जब
तो बुझने का इरादा क्यूँ करें हम

खमोशी की सदा अक्सर सुनी है
न सुनने का बहाना क्यूँ करें हम

भरोसा जब नहीं खुद पे हमें ही
*वफ़ादारी का दावा क्यूँ करें हम*

हो झगड़ा आपसी सुलझाएँ खुद ही
ज़माने में तमाशा क्यों करें हम

न होता झूठ का कोई ठिकाना
फिर उसको ही तराशा क्यूँ करें हम

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 19, 2017 at 12:43pm
आ, सतविंदर भाई,
थोड़े और चिंतन की आवश्यकता है ग़ज़ल पर। अंतिम मिसरा देख लें, बहर छोड़ रहा है।
सादर
Comment by SALIM RAZA REWA on September 19, 2017 at 11:00am
भाई सतविन्द्र कुमार जी,
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई,

कृपया ध्यान दे...

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