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रोशनी में सिसकियां (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

रोशनी की किरण के रास्ते को जब उस युवती ने अपनी हथेली से बाधित किया तो उसकी चारों उंगलियां लालिमा पाकर उसे भाव संसार में ले गईं।
"लोकतंत्र के चारों स्तंभों में नारी भी सक्रिय है, नारी का महान योगदान है!" यही तो उसकी मां ने उसे बताया, समझाया और फिर इस लायक बनाया कि वह आज इन सभी के संपर्क में है बतौर मीडियाकर्मी। मां की मधुर स्मृतियां उसे भाव संसार में ले गईं। कुछ पल ही गुज़रे कि उसकी आंखों से आंसू लाल गालों को गर्माहट सी देने लगे।
"परिपक्व कहलाने वाले हमारे इस लोकतंत्र के चारों स्तंभ आज भी नारी के लिए उतना नहीं कर पा रहे, जितना कि नारी को भुना रहे हैं!" उसके अंतर्मन ने कराहते हुए कहा- "पांचवें स्तंभ रूपी जनता लोकतंत्र की रोशनी में भी अंधकार से पीड़ित है! नारी आज भी भोग्या ही है न!" युवती अपनी हथेली की चारों उंगलियां देखती हुई अपने अब तक के बुरे तज़ुर्बों के संसार में खो गई कुछ सिसकियों के साथ।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Neelam Upadhyaya on September 11, 2017 at 10:58am

 आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी, बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । बधाई स्वीकार करें ।

Comment by TEJ VEER SINGH on September 11, 2017 at 10:10am

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।बहुत संवेदनशील एवम मार्मिक प्रस्तुति।

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