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१२२ १२२ १२२ १२२

नहीं है यहाँ पर मुझे जो बता दे
सही रास्ता जो मुझे भी दिखा दे

ये कैसी हवा जो चली है यहाँ पर
परिंदा नहीं जो पता ही बता दे

चले थे कभी साथ साथी हमारे
पुरानी लकीरों से यादें मिटा दें

कभी तो मिलेगी ज़िन्दगी पुरानी
वफ़ा की ज्वाला यहाँ भी जला दे

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 25, 2017 at 7:49am
वाह.. यहां भी बढ़िया प्रयास। सादर हार्दिक बधाई आदरणीय कल्पना भट्ट जी। दूसरा शे'र सबसे बढ़िया लगा। तीसरे शे'र में //साथ साथी// दो मिलते-जुलते शब्द रखना शायद ठीक नहीं है। क्या यह /संग साथी// किया जा सकता है? इस शे'र पर गुणीजन ही मार्गदर्शन दे सकेंगे।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 25, 2017 at 7:21am
धन्यवाद आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 24, 2017 at 11:50pm
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब समर भाई जी की इच्छा थी मैं ग़ज़ल पर भी प्रयास करूँ आपसे वादा किया था प्रयास करुँगी गलती होगी निश्चित है अ ब स गज़ल की नहीं आती । पर प्रयास किया अपने भाई के वादे को निभाने के लिए । सादर ।
Comment by Mohammed Arif on August 24, 2017 at 11:09pm
आदरणीया कल्पना भट्ट जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल । प्रथम प्रयास में आशा की किरणें नज़र आ रही है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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