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हैं वफ़ा के निशान समझो ना (प्रेम को समर्पित एक ग़ज़ल "राज')

२१२२ १२१२  २२

खामशी की जबान समझो ना

अनकही दास्तान समझो ना

 

सामने हैं मेरी खुली बाहें

तुम इन्हें आस्तान समझो ना

 

ये गुजारिश सही मुहब्बत की

तुम खुदा की कमान समझो ना

 

स्याह काजल बहा जो आँखों से

हैं वफ़ा के निशान  समझो ना 

 

बस  गए हो मेरी इन आँखों में

इनमें  अपना जहान  समझो ना

 

झुक गया है तुम्हारे कदमों में

ये मेरा आसमान समझो ना

 

खींच लाती कोई कशिश हमको   

रब्त है दरमियान समझो ना  

आस्तान =भगवान् की मूरती तक पंहुचने का द्वार 

कमान=हुक्म /आदेश 

---मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on August 23, 2017 at 10:55am
जनाब रवि जी आदाब,बहुत बहुत शुक्रिया आपका ।
Comment by Ravi Shukla on August 23, 2017 at 10:38am

आदरणीय समर साहब गजल की टिप्‍पणी पर चर्चा में लौट कर आने का फायदा ही ये होता है कि कई बातों के खुलासे होते है गालिब के शेर से जो आपने बात का खुलासा किया उससे बहुत जानकारी बढ़ी है आपकी चर्चा को पढना बहुत लाभदायक है हमारे लिये । बहुत बहुत आभार ।

Comment by Samar kabeer on August 22, 2017 at 9:20pm
बहुत बहुत शुक्रिया बहना, आप तो जानती हैं,हम ओबीओ के सेवक हैं,जो कुछ भी आता है एक दूसरे से साझा कर लेते हैं,जनाब नीरज साहिब का मुतमइन होना ज़रूरी है,देखें वो क्या कहते हैं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2017 at 9:12pm

आद० रविशुक्ल भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2017 at 9:11pm

आद० मोहम्मद आरिफ जी, आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2017 at 9:07pm

आद० समर भाई जी ,आपने इतने विस्तृत रूप से आस्तां शब्द की व्याख्या की है मेरे भी सब भ्रम दूर हो गए हैं मैंने भी इस शब्द पर बहुत खोजबीन की किन्तु आपने जिस सरलता से इस बात को समझाया उसके लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास .ग़ालिब के शेर ने तो समझने में और सहायता की है आपका बहुत बहुत शुक्रिया पाठक गन इस चर्चा से अवश्य लाभान्वित होंगे |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2017 at 9:02pm

आद०  बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका बहुत बहुत शुक्रिया 

Comment by Samar kabeer on August 22, 2017 at 8:25pm
जनाब नीरज कुमार जी आदाब,
//'रोजे का दरवाजा'क्या होता है मै इससे वाकिफ नहीं हूँ.स्पष्ट कर सके तो मेहरबानी होगी.//
"रोज़ा"या "रोज़े" कहते हैं बुज़ुर्गों के मज़ार को ।
//ग़ालिब का एक ही शेर यह स्पष्ट करने के लिए काफी है कि दरवाजा और आस्तान दो अलग चीजें हैं इसमें दोनों का जिक्र एक साथ हुआ है.
दैर नहीं,हरम नहीं,दर नहीं,आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम,ग़ैर हमें उठाये क्यों//
आपने ग़ालिब का ये शेर पेश करके बहुत आसानी पैदा कर दी,आपको ग़ालिब की ज़बान में ही समझाने की कोशिश करता हूँ,उम्मीद है इसे समझने की कोशिश करेंगे और इस बहस को बिला वजह तूल नहीं देंगे ।
जैसा कि हम जानते हैं कि शब्दकोष में एक शब्द के कई अर्थ दिये होते हैं,तो उसका कारण यही होता है कि हम जब ग़ज़ल या किसी और विधा का सृजन करें तो उसके हिसाब से अर्थ ले लें,ग़ालिब के शैर के ऊला मिसरे में 'दर'और 'आस्तां' शब्द आये हैं,जिसका तर्क आपने ये दिया है कि ये दोनों अलग अलग चीजें हैं क्योंकि इनका ज़िक्र एक साथ हुआ है,इस बात को समझने के लिये हमें लुग़त से इस्तीफादा करना होगा,सबसे पहले 'आस्तान'शब्द के अर्थ देखते हैं :-
1-चौखट
2-ड्यूढी
3-दरवाज़ा
4-बुज़ुर्गों के मज़ार(रोज़े का दरवाज़ा)
अब हम "दर" शब्द का अर्थ देखते हैं :-
1-दरवाज़ा
2-फाटक
3-चौखट
4-दहलीज़
5-वादी
6-दामन-ए-कोह(पहाड़ी रास्ता)
अब ज़ाहिर है कि "दर"शब्द के अर्थों में कहीं 'आस्तां'ज़िक्र नहीं लेकिन "आस्तां"शब्द के अर्थों में दरवाज़े का ज़िक्र मौजूद है,जिससे इंकार नहीं किया जा सकता,पस ये साबित हुआ कि ग़ालिब ने"दर" को किस अर्थ में लिया और 'आस्तां'को किस अर्थ में ।
अब ग़ालिब ही का एक शेर देखिये :-
'हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ,काफ़र नहीं हूँ मैं'
इस शैर के ऊला मिसरे में 'सज़ा' और 'उक़ूबत'दो शब्द आये हैं,"उक़ूबत" का अर्थ लुग़त में देखते हैं:-
1-दुःख
2-अज़ाब
3-सज़ा
4-तकलीफ़
इसमें 'सज़ा'का ज़िक्र भी है तो सवाल ये उठता है कि ऊला मिसरे का क्या अर्थ निकालें :हद चाहिए सज़ा में सज़ा के वास्ते'ज़ाहिर है कि 'सज़ा'के साथ 'उक़ूबत'अज़ाब और तकलीफ़ के अर्थ में ययः है, और 'सज़ा'ज़्ज़ ही है ।
बहना के शेर में आस्तां से कोई रिश्ता क़ाइम नहीं किया गया है,बल्कि बांहों को आस्तां के दरवाज़े से तशबीह दी गयी है जो सौफीसदी सही है ।
उम्मीद है आप समझ गए होंगे ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 22, 2017 at 8:20pm
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीया..
खामशी की जबान समझो ना
अनकही दास्तान समझो ना.. बेहतरीन

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2017 at 6:46pm

मोहतरम जनाब तस्दीक अहमद जी ,आपका बहुत बहुत शुक्रिया | काजल वाले मिसरे में मुझे आपकी बात सही लगी है सियाह कर  नहीं सकती हिंदी में स्याह लिखते हैं इस लिए ये लिखा किन्तु इसको संशोधित कर सकती हूँ जैसे ---हाय काजल बहा जो आँखों से या मेरे आँसूं बहे जो आँखों से --मिसरे में बहु वचन इस लिए आयेगा क्योंकि  उला में आँखों से लिखा है तो निशान भी दोनों आँखों के नीचे ही होंगे अर्थात बहु वचन में ही होंगे सिर्फ एक आँख से तो काजल नहीं बहेगा और काजल को बहूवचन में लिख नहीं सकते | हाँ आपकी स्याह शब्द को लेकर इस्स्लाह का स्वागत है |

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