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मापनी २२ २२ २२ २२

 

झील सी गहरी नीली आँखें

हैं कितनी सकुचीली आँखें

 

खो देता हूँ  सारी सुध बुध

उसकी देख नशीली आँखें

 

यादों  के सावन  में भीगीं

हो गईं कितनी गीली आँखें

 

मोम बना दें पत्थर को भी

छोटी  सीली  सीली आँखें

 

राह तुम्हारी  तकते तकते

हो गईं  हैं पथरीली  आँखें

 

बढती बेलें देख के’ अपनी

होतीं  हैं    गर्वीली  आँखें

प्रेम अगन सुलगाने को तो

हैं माचिस की तीली आँखें

 

गम  तो है  वैसे का वैसा

रोतीं  खाली-पीली  आँखें

 

सुन लेतीं सब कह देतीं सब

कहने  को  शर्मीली  आँखें

 

 "मौलिक एवं अप्रकाशित "

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on August 8, 2017 at 10:35am
आदरणीय बसंत जी आदाब, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । आगे गुणीजन अपनी राय देंगे ।
Comment by Ravi Shukla on August 8, 2017 at 9:40am

वाह वाह आदरणीय बसंत जी क्‍या खूब अश्‍आर कहे है बहरे मीर पर आपने बहुत खुब मुबारक बाद कुबूल करें

प्रेम अगन सुलगाने को तो

हैं माचिस की तीली आँखें ये शेर खास तौर पर पसंद आया

मतले के सानी मे सकुचीली आंखैं नया शब्‍द प्रयोग है

गजल के लिये दाद पेश है । सादर

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