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एक अतुकांत कविता मनोज अहसास

तुम्हें मेरी लिखावट बहुत पसंद थी
और मुझे तुम्हारी
तुम अक्सर कहती
"जैसे घुमा घुमाकर लपेटकर तुम लिखते हो,ऐसे ही मैं भी लिखना चाहता हूं"
मैं भी कई बार सोचता
"जैसे धीरे धीरे ,सोच सोचकर तुम लिखती हो ना ऐसे ही मैं भी लिखना चाहता हूँ"

बहुत दिनों तक साथ साथ लिखते रहे
और देखते रहे
एक दूसरे की लिखावट को
और मेरी लिखावट मिल गई तुम्हारी लिखावट में
और तुम्हारी लिखावट मिल गई मेरी लिखावट में
एक नया लेख बना
जो न तुम्हारा था न मेरा
और हम दोनों का था।

फिर जुदा हो गए
लेकिन वो लिखावट मेरी उंगलियों में ही
रह गई शायद
बरसो तलक जब कभी लिखता
तुम्हारे साथ होने का अहसास होता
जैसे तुम पास ही हो
कई रास्ते तय किये
कितने लोग मिलें
कितनों के साथ बैठकर लिखा
और प्रभावित होने की मेरी कमज़ोरी से
बहुत से लोगों की लिखावट के कुछ अक्षर मेरे लिखावट में आ गए
जैसे धुल गईं हो उंगलिया
और दुनिया का रंग चढ़ गया हो इनपर।

लेकिन मैली हो चुकी इन अंगलियों से अब भी जब कभी बहुत फुरसत में
कुछ गीत ग़ज़ल लिखता हूँ
वो लिखावट कभी कभी उभर आती है
जिससे तुम्हारी मौजूदगी का अहसास होता था

अब........

कभी कभी तुम आ जाती हो
कभी कभी नही भी आती


मओलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 26, 2017 at 10:06pm
आदरणीय मनोज जी बहुत ही खूबसूरत मर्मस्पर्शी अहसास पिरोये हैं अपने..बधाई

कृपया ध्यान दे...

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