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मेरे बच्चों को खाना मिल गया है,
मुझे सारा ज़माना मिल गया है !

जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,
आंसुयों को ठिकाना मिल गया है !

मेरा पडौस परेशान है यही सुनकर
मुझे क्यों आब-ओ-दाना मिल गया है!

तेरे आशार और मुझको मुखातिब,
मुझे मानो खजाना मिल गया है !

कलम उगलेगी आग अब यकीनन,
जख्म दिल का पुराना मिल गया है !

मेरे आशार और है ज़िक्र उनका,
दीवाने को दीवाना मिल गया है !

लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे कस्बे को थाना मिल गया है !

(रचनाकाल अगस्त 1987)
(शाना=कंधा, आब-ओ-दाना=दाना पानी, मुखातिब=संबोधित, आशार=शेअर का बहुवचन, अस्मतें=इज्जतें)

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Comment by Naval Kishor Soni on August 28, 2012 at 1:08pm

लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे कस्बे को थाना मिल गया है !-----------------sahi kha aapne janab.

Comment by Hilal Badayuni on September 22, 2010 at 3:45pm
जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,
आंसुयों को ठिकाना मिल गया है !
bahut behtareen sher hai mukammal ghazal kehi hai wah wah
Comment by Aparna Bhatnagar on September 18, 2010 at 11:52pm
मेरे बच्चों को खाना मिल गया है,
मुझे सारा ज़माना मिल गया है !

जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,
आंसुयों को ठिकाना मिल गया है !

aur phir yun bayaan karna -
कलम उगलेगी आग अब यकीनन,
जख्म दिल का पुराना मिल गया है !
bahut khoob!

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 9, 2010 at 2:29pm
भाई राणा प्रताप जी, विवेक मिश्रा जी, प्रीतम तिवारी जी, गणेश "बागी" जी, धर्मेन्द्र शर्मा जी, जूली जी और सतीश मापतपुरी जी - हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया !
Comment by satish mapatpuri on July 7, 2010 at 5:11pm
मेरा पडौस परेशान है यही सुनकर
मुझे क्यों आब-ओ-दाना मिल गया है!
कलम उगलेगी आग अब यकीनन,
जख्म दिल का पुराना मिल गया है !
सादर अभिवादन, शुक्रिया उन पुराने ज़ख्मों का, जो आप को मिल गए हैं. यकिनन बेहतरीन ग़ज़ल है. बधाई.
Comment by धर्मेन्द्र शर्मा on July 6, 2010 at 5:33pm
आपकी काव्य रचना सन् 1987 के समय की आबो हवा में फिर से ले गयी एक बार. बदलते संबंधो पर बहुत खूब टिप्पणी की है आप ने प्रभाकर जी. बिगड़ती क़ानून व्यवस्था को जिस तरह आपने सिर्फ़ दो पंक्तियों में ही समेटा है, वो क़ाबिले तारीफ़ है.
एक बार फिर से आपकी रचना के लिए साधुवाद स्वीकार करें.
धर्मेन्द्र शर्मा, गुड़गाँव

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 5, 2010 at 12:25pm
कलम उगलेगी आग अब यकीनन,
जख्म दिल का पुराना मिल गया है !

वाह संपादक जी वाह, गजब ग़ज़ल कही है आपने, यक़ीनन आग उगलेगी आप की क़लम इसमे किसी को कोई शक नही है, जब 1987 मे आप की क़लम से इतनी आग निकल सकती है तो अब तो आप की क़लम मे बारूद की मात्रा कुछ ज़्यादा ही है,
सारे शेअर खूबसूरत है, अंतिम शेअर का जबाब नही,
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on July 5, 2010 at 12:24pm
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे कस्बे को थाना मिल गया है !

bahut hi badhiya rachna yogi bhaiya....ek ek shabd dil ko chu rahi hai...aapki kalam ki taakat bahut hi zordaar hai.....
Comment by विवेक मिश्र on July 5, 2010 at 9:22am
अब आप तो खुद ही प्रधान सम्पादक हैं और मैं इस काबिल कहाँ कि सम्पादक की ग़ज़ल में सम्पादन कर सकूँ.. ग़ज़ल पढने के बाद जुबां से बस एक ही शब्द निकलता है- "वाह...!!!". शब्दों का सटीक इस्तेमाल तो कोई आपसे सीखे. विशेषकर; पांचवा शेर और मकता, दोनों ही दिल को छूने वाले हैं. आपके कलम की आग देखने को मिलती रहे बस... और क्या चाहिए..??

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 5, 2010 at 6:35am
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे कस्बे को थाना मिल गया है !

क्या बात है योगी सर.......अनुपम .....अद्वितीय......बेमिसाल.........नायब........ ...सारे ही शेयर दिल को चोट करते है...बहुत दिनों बाद आपके खजाने से हीरा निकला है.....शुक्रिया हमारे साथ बांटने के लिए

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